________________ तब वहाँ भी 'य' हट जाता है अथवा य को सम्प्रसारण (इ) हो जाता है। जैसे-भार्या , भज्जा (भारिआ), सौन्दर्यम् सुन्दरिअं, सुन्दरं। इसीलिए हेमचन्द्राचार्य ने सूत्र में प्रयुक्त 'प्रायः' की व्याख्या करते हुए वृत्ति में लोपाभाव के जो उदाहरण दिए हैं उनमें 'य' लोपाभाव का एक भी उदाहरण नहीं दिया है जबकि 'ग' और 'व' के लोपाभाव के तीन-तीन उदाहरण दिए हैं तथा शेष वर्गों के लोपाभाव का एक-एक उदाहरण दिया है। वहाँ 'पयागजलं' (प्रयागजलम्) जो उदाहरण दिया गया है वह क्रमप्राप्त 'ग' लोपाभाव का उदाहरण है, न कि 'य' लोपाभाव का। वररुचि ने प्रायः शब्द की व्याख्या में 'य' से सम्बन्धित लोपाभाव का एक उदाहरण दिया। है 'अयश: ) अजसो।" यहाँ 'य' का 'ज' हुआ है। वस्तुतः यह नञ् समासगत पदादि वर्ण है। 3 'य' श्रुति-'क, ग' आदि वणों का लोप होने पर यदि वहाँ 'अ, आ' शेष रहे तथा अवर्ण परे (पूर्व में) हो तो लुप्त व्यञ्जन के स्थान पर लघु-प्रयत्नतर 'य' श्रुति भी होती है। जैसे-तीर्थङ्करः > तित्थयरो, तित्थअरो; नगरम् > रयरं, नअरं; काचमणि:> कायमणी:, रजतम > रययः, मदनः > मयणो, मअणो; विपुलम् - वियुलं, विउलं; दयालुः>दयालू; लावण्यम् > लायणं / यह 'य' श्रुति नियम 'अ' स्वर शेष रहने पर ही लागू होता है, अन्य स्वर शेष रहने पर प्राय: नहीं होता है। जैसे-वायू: > वाऊ, राजीवम् > राईव। कभी-कभी अवर्ण पूर्व में न रहने पर भी श्रुति होती है। जैसे-पिबति-पियइ। वस्तुत: यह जैनमहाराष्ट्री की विशेषता है तथा वैकल्पिक है। यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है कि वररुचि ने 'य' श्रुति विधायक सूत्र नहीं बनाया है। अत: उनके द्वारा प्रयुक्त उदाहरणों में एक भी 'य' वाला उदाहरण नहीं है। मूल 'य' और लघुप्रयत्नतर 'य' वर्ण के उच्चारण में भिन्नता रही है, अत: दोनों एक नहीं हैं। वस्तुतः यहाँ 'य' श्रुति कहने का यही तात्पर्य है जो सुनने में 'य' जैसा लगे, वस्तुतः 'य' न हो, संस्कृत वैयाकरणों ने इसे अधिक स्पष्ट किया है। 4. सम्प्रसारण-'य' की गणना अर्धस्वरों में की जाती है। अत: कभी-कभी संयुक्त और असंयुक्त उभय अवस्थाओं में 'य' का सम्प्रसारण (य > इ) हो जाता है। जैसे-चोरयति > चोरेइ ( चोर+ इति > इइ= चोरेइ ), कथयति > कहेइ, व्यतिक्रान्तम् वीइक्कतं, प्रत्यनीकम् > पडिणीयं, सौन्दर्यम् > सुन्दरिअं। 5. संयुक्त 'य' का लोप- संयुक्त 'य' का लोप होता है। प्राकृत की प्रकृति के अनुसार प्राकृत में भिन्नवर्गीय संयुक्त व्यञ्जन नहीं पाए जाते / उनमें से या तो एक का लोप करके और दूसरे का द्वित्व करके समानीकरण कर दिया जाता है या स्वरभक्ति। जैसे-लोप-मन्त्र > मन्त, शस्त्र > सत्थ, अभ्यन्तर > अभ्यंतर। स्वरभक्ति-स्मरण > सुमरण, द्वार > दुवार। यह स्वरभक्ति प्रायः अन्तःस्थ या अनुनासिक वर्गों के संयुक्त होने पर ही देखी जाती है। 6. संयुक्त 'य' का प्रभाव-(क) यदि संयुक्त वर्ण समान बल वाले होते हैं तो पूर्ववर्ती वर्ण का लोप करके परवर्ती वर्ण का द्वित्त्व कर दिया जाता है। यदि असमान बल वाले वर्ण होते हैं तो कम बलवाले का लोप करके अन्य वर्ण का द्वित्व कर दिया जाता है। जैसे-उत्पलम् > उप्पलं, काव्यम् > कव्वं, शल्यम् > सल्लं, वयस्य > वअस्स, अवश्यम् > अवस्सं, चाणक्य > चाणक्क। (ख) यदि लोप होने पर द्वितीय या चतुर्थ वर्ण का द्वित्त्व होता है तो पूर्ववर्ती वर्ण को क्रमशः प्रथम या तृतीय वर्ण में बदल दिया जाता है / जैसे-व्याख्यानम् > वक्खाणं, अभ्यन्तर > अब्भंतर। (ग) ऊष्मादेश-ऊष्म और अन्तःस्थ वर्णों का संयोग होने पर अन्तःस्थ को ऊष्मादेश होता है (य र व श ष स इन वर्गों का लोप होने पर यदि इनके पहले या बाद में श ष स वर्ण हों तो उस सकार के आदि स्वर को द्वित्वाभाव पक्ष में दीर्घकर दिया जाता है)। जैसे शिष्यः-सीसो, (घ) तालव्यादेश-त्य थ्य द्य ध्य को क्रमश: च छ ज झ आदेश होते हैं। पश्चात् द्वित्त्वादि कार्य। जैसे-अत्यन्तम् ) अच्चन्तं। प्रत्यक्षम् ) पच्चक्खं, मिथ्या > मिच्छा, रथ्या > रच्छा, उद्यानम् > उज्जाणं, विद्या > विज्जा, उपाध्यायः ) उवज्झाओ। (ङ) आदि वर्ण के संयुक्त होने पर कमजोर वर्ण का लोपमात्र होता है, द्वित्त्व नहीं। यदि कमजोर वर्ण का लोप नहीं होता है तो स्वरभक्ति कर दी जाती है / जैसे-न्यायः > णायो, स्वभावः > सहावो, व्यतिकरः ) बइयरो, ज्योत्स्ना ) जोण्हा, त्यजति > चयइ, श्यामा > सामा, स्नेह: > सणेहो, स्यात् > सिया, ज्या > जीआ। 7. विशेष परिवर्तनः (जहाँ 'य' भिन्न-भिन्न रूपों में परिवर्तित हुआ है) 397