________________ व्याकरण, दर्शन, अध्यात्म, छन्द, कोश, अलङ्कार आदि। इसके अतिरिक्त संस्कृत के नाट्य साहित्य का तो अधिकांश भाग प्राकृत में ही उपनिबद्ध है। नाट्य की सट्टकविधा केवल प्राकृत में है। भाषा की मधुरता तथा भावाभिव्यक्ति जितनी अधिक प्राञ्जल प्राकृत में है उतनी संस्कृत में नहीं। इसीलिए संस्कृत के लक्षण-ग्रन्थों में प्राकृत के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं। आचार्य राजशेखर ने अपने सट्टक (कर्पूरमंजरी) में संस्कृत और प्राकृत की तुलना करते हुए लिखा है - परुसा सक्कअबंधा पाउअबंधो वि होइ सुउमारो। पुरिसमहिलाणं जेतिअमिहंतरं तेत्तिअमिमाणं॥(1.8) देश की प्राचीन चिन्तनधारा, सदाचार, संस्कृति, इतिहास, काव्यकला आदि की संवाहिका भाषायें प्राकृत और संस्कृत हैं। आज की जनभाषा की कड़ी विना प्राकृत और संस्कृत के नहीं जोड़ी जा सकती है / भाषा का प्राचीनतम रूप भी इन्हीं के द्वारा खोजा जा सकता है। प्राकृत भाषा को संस्कृत के माध्यम से प्रस्तुत करके प्राकृत व्याकरण-लेखकों ने एक बड़ी गलती की जिससे प्राकृत के मूलरूप में भ्रम हो गया। पालिव्याकरणवत् यदि प्राकृत व्याकरण को प्राकृत में प्रस्तुत किया होता तो अच्छा था। उपसंहार : इस तरह दोनों भाषाओं की परस्पर तुलना करने पर निम्न तथ्य प्रकट होते हैं - (1) दोनों का उद्गम स्रोत एक होने से दोनों सहोदरा हैं, परन्तु संस्कृत नियमादि से संस्कार की गई भाषा है और प्राकृत जनभाषा का प्रतिनिधित्व करती है। (2) लौकिक संस्कृत तथा छान्दस् संस्कृत में प्राकृत के तत्त्वों का समावेश है। दोनों भाषाओं ने एक दूसरे को प्रभावित किया है। (3) प्राकृत लौकिक संस्कृत की अपेक्षा छान्दस् के अधिक निकट है। (4) संस्कृत नाटकों का आधा भाग प्राकृत का है, कहीं कहीं तो 3/4 भाग प्राकृत है / (5) उपलब्ध प्राकृत व्याकरणों के अध्ययन के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है। (6) काव्यशास्त्र, दर्शनशास्त्र, शिलालेख आदि विषयों से सम्बन्धित साहित्य दोनों भाषाओं में है। (7) आधुनिक भाषाओं में दोनों भाषाओं के तत्सम और तद्भव शब्द पाए जाते हैं / (8) दोनों संश्लेषणात्मक भाषायें हैं परन्तु प्राकृत में वियोगात्मकता की ओर झुकाव परिलक्षित होता है। (9) संस्कृत में नामरूप, धातुरूप आदि में जटिलता अधिक है जबकि प्राकृत में सरलीकरण। (10) कथ्य भाषा की दृष्टि से प्राकृत प्राचीन है परन्तु साहित्यनिबद्ध भाषा की दृष्टि से संस्कृत प्राचीन है। (11) संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ संस्कृत में लिखे गये हैं जबकि प्राकृत व्याकरण ग्रन्थ प्राकृत में न लिखकर संस्कृत में लिखे गए हैं। (12) प्राचीन धर्म संस्कृति, इतिहास, ज्योतिष, गणित, विज्ञान, कला आदि विविध विषयों के ज्ञानार्थ दोनों का ज्ञान आवश्यक हैं। (13) प्राकृत की प्रकृति संस्कृत मानना एक भूल है। वस्तुतः संस्कृतज्ञों को प्राकृत समझाने के लिए प्राकृत वैयाकरणों का वह एक प्रयत्नमात्र है जिसमें तद्भव शब्दों की मात्र व्याख्या की गई है। (14) प्राकृत में जितनी विविधरूपता और आर्ष प्रयोग हैं उतने संस्कृत में नहीं हैं। (15) संस्कृत केवल विद्वानों की और प्राकृत केवल स्त्रियों एवं नीच पात्रों की भाषा नहीं थी अपितु दोनों एक दूसरे की भाषा को समझते थे। धार्मिक कार्यों, साहित्यिक प्रयोगों और शास्त्र सभा आदि में संस्कृत का प्रयोग होता था और सामान्य व्यवहार में प्राकृत का। (16) प्रवरसेन, राजशेखर आदि संस्कृत विद्वान् प्राकृत के अच्छे ज्ञाता थे। अतः उन्होंने प्राकृत में विपुल साहित्य लिखा। (17) णत्वविधान एवं मूर्धन्य ध्वनियों की प्रवृत्ति द्रविड़ भाषा के प्रभाव से दोनों में आई है। प्राकृत पर इसकी प्रभाव अधिक है। (18) वैदिक साहित्य केवल संस्कृत में मिलता है जबकि श्रमण साहित्य प्राकृत एवं संस्कृत दोनों में मिलता है। (19) संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत में माधुर्य, भावाभिव्यक्ति, व्यङ्ग्य एवं सांसारिक जीवन की झांकी अधिक स्पष्ट है। (20) व्यञ्जनान्त प्रयोगों को अभाव, असमानवर्गीय संयुक्त व्यञ्जनों का अभाव उदवृत्त स्वरों का प्रयोग, श्रुति आदि प्राकृत की विशेषतायें संस्कृत में नहीं हैं। (21) ऋ, लु, ऐ, औ, विसर्ग प्रभृति वर्णों का प्रयोग संस्कृत में तो है परन्तु प्राकृत में नहीं है। सन्दर्भ - 1. देखें, मेरी पुस्तक 'प्राकृत दीपिका' भूमिका, पृ. 7-9 2. राजशेखर, बालरामायण 48 3. गउडवहो। 4. रुद्रटकृत काव्यालङ्कार 2.12 पर आO नमि साधु (11वीं शताब्दी) की व्याख्या। 5. सिद्धहेम-शब्दानुशासन 8.1.1 395