________________ वस्तुतः यह सम्यक्त्व-प्राप्ति के पूर्व की अभ्यास-अवस्था अथवा सम्यक्त्व से पतन के बाद की अवस्था है। यह अवस्था एक प्रकार से उपशान्त कषाय जैसी है परन्तु 'यहाँ से पतन निश्चित होगा' ऐसा नियम नहीं है, योगी सम्यग्दृष्टि होकर आगे भी बढ़ सकता है। इसीलिए यहाँ सम्यक्त्व को भजनीय कहा जा सकता है। 5. स्थिरावृष्टि 5- इस अवस्था में ग्रन्थिभेद से क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है जो नित्य है। विषय-विकार-त्यागरूप प्रत्याहार की यह अवस्था है। 'सूक्ष्मबोध' गुण की प्राप्ति होती है। अचंचलता, निरोगता, अकठोरता, मलादि-विषयक अल्पता, सुस्वरता आदि के कारण परमात्म-दर्शन की ओर इन्द्रियों का झुकाव हो जाता है। इस दृष्टि की उपमा रत्न-प्रभा से दी गई है जो सौम्यता प्रदान करती है। इसे 'वेद्यसंवेद्यपद' (सत्य की परीक्षा करके तद्नुरूप आचरण करना) प्राप्ति भी कहा जाता है। यहाँ भ्रमदोष (शंका) नहीं रहता है। 6. कान्तादृष्टि- इस दृष्टि में धारणा (किसी पदार्थ के किसी एक भाग पर चित्त को स्थिर करना) के संयोग से सुस्थिरता आती है। तारागणों के आलोक के समान इसका स्थिर आभामण्डल होता है। पूर्व की दृष्टियों में जहाँ योगी कर्मग्रन्थियों को छेदने में प्रयत्नशील रहता है वह यहाँ आकर अपूर्वता का अनुभव करता है। पूर्ण क्षमाशील बन जाता है। सर्वत्र उसका आदर-सत्कार होता है। परम आनंदानुभूति होती है। स्व-पर वस्तु का सम्यक् बोध हो जाता है। यह दृष्टि आगे की दृष्टियों की आधारशिला होती है। प्रमादजन्य अतिचार-रहित अवस्था है। सूक्ष्मबोध के बाद 'मीमांसा' (चिन्तन-मनन) गुण विशेष रूप से जागृत होता है। 7. प्रभादृष्टि- इसमें सूर्य की प्रभा के समान अत्यन्त स्पष्ट बोध होने लगता है। योगी आत्मसुख की प्राप्ति में तल्लीन हो जाता है। रोगादि क्लेशों से पीडति नहीं होता है। असङ्गानुष्ठान (समता) उदित होता है। असङ्गानुष्ठान के चार प्रकार हैं(क) प्रीति (कषायमुक्त रागभाव), (ख) भक्ति (आचारादि क्रियाओं में स्नेह), (ग) वचन (शास्त्र-वचन) तथा (घ) प्रवृत्ति (वचनानुष्ठान में स्वाभाविक प्रवृत्ति)। यहाँ योगी को सच्चे सुख की अनुभूति होती है। केवलज्ञान-प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है। चित्त-एकाग्रतारूप ध्यान इसमें प्रवाहरूप और दीर्घकालिक होता है जबकि कान्तादृष्टि में अल्पकालिक और एकदेशीय होता है। प्रतिपत्ति गुण (समाधि) की प्राप्ति होती है। कान्तादृष्टि में मीमांसित तत्त्व का इसमें अमल प्रारम्भ हो जाता है। अपूर्व शान्ति मिलती है। कर्ममल क्षीणप्राय हो जाता है। 8. परादृष्टि - इसमें आत्म-प्रवृत्ति गुण (प्रतिपत्ति गुण की पूर्णता) की प्राप्ति होती है। इसे चन्द्रमा की कान्ति की तरह शान्त और सौम्य अवस्था कहा है। अखण्ड आनन्द मिलता है। प्रभादृष्टि में ध्येय का आलम्बन होता है परन्तु परादृष्टि में ध्याता, ध्येय और ध्यान का भेद नहीं रहता है। समस्त दोषों (मोहनीय कर्मों) के नष्ट होने से अनेक लब्धियों की प्राप्ति होती है। इसमें समाधि की सम्प्राप्ति होती है। धारणा से प्राप्त होने वाली एकाग्रता ध्यानावस्था को पार करती हुई समाधि में पर्यवसित होती है। धारणा में अप्रवाह रूप एकाग्रता है, ध्यान में प्रवाह है परन्तु सातत्य नहीं जबकि समाधि में अविच्छिन्न एकाग्रता होती है। कालसीमा अधिकतम अन्तर्मुहूर्त है। यहाँ परभाव में रंचमात्र भी आसक्ति न होने से 'आसङ्गदोष' नहीं रहता। आत्मसमाधि की अथवा जीवन्मुक्त की यह अवस्था है। निर्वाण-प्राप्ति हेतु अयोग-केवली होकर साधक योग-संन्यास लेता है और अन्तिम समय में पाँच ह्रस्वाक्षरों के उच्चारण मात्र काल में शेष अघातिया कर्मों को नष्ट करके मोक्ष (सिद्धावस्था) प्राप्त कर लेता है। योगदृष्टिबोधक तालिका (उत्तरोत्तर उत्कृष्टता ) योगदृष्टि योगाङ्ग गुणप्राप्ति दोषाभाव बोधसादृश्य गुणस्थान मुख्यलक्षण 1 मित्रा अद्वेष खेदत्याग (अखेद) तृणाग्निकण प्रथम अद्वेष, अखेदभाव 2 तारा नियम जिज्ञासा उद्वेगाभाव कंडे का अग्निकण प्रथम धर्मकथा में रुचि (अनुद्वेग) 3 बला आसन शुश्रूषा क्षेप= विघ्नाभाव काष्ठ अग्नि प्रथम शास्त्रश्रवण, देवपूजादि में आनन्द 4 दीप्रा प्राणायाम श्रवण उत्थान(चित्तअशान्ति दीपकप्रभा आसक्तियुक्त सदाचरण अभाव) 5 स्थिरा प्रत्याहार सूक्ष्मबोध भ्रमाभाव 4,5,6 अलोलुपता, सम्यक्त्वग्रन्थिभेद 6 कान्ता धारणा मीमांसा अन्य- मुदाभाव पदार्थ पर प्रवाह-हीन (स्वानुभव मोद) चित्त स्थिरता 384 प्रथम रत्नप्रभा ताराप्रभा 4,5,6