Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 403
________________ योगदृष्टियों में अन्तर करते हुए आठों को योगदृष्टियाँ कहा है जो उचित भी है। क्योंकि ये सत्सङ्गति आदि से प्रगतिपथ पर ले जाती हैं। इन आठ योगदृष्टियों से जीव को किस प्रकार का बोध प्राप्त होता है उसे क्रमश: आठ दृष्टान्तों के द्वारा बतलाया गया है। 5- 1. तृणाग्नि कण, 2. गोमयाग्नि कण = कण्डे की अग्नि, 3. काष्ठाग्नि, 4. दीपप्रभा, 5. रत्नप्रभा, 6. ताराप्रभा, 7. सूर्यप्रभा और 8. चन्द्रप्रभा। जैसे इन तृणाग्नि आदि की कान्तियाँ उत्तरोत्तर स्पष्टता और स्थिरता लिये हुए हैं उसी प्रकार योगदृष्टियाँ बोध की स्पष्टता और स्थिरता लिये हुए हैं। सूर्यप्रभा की अपेक्षा जो चन्द्रप्रभा को उत्कृष्ट बतलाया है उसका कारण चन्द्रमा की शीतलता और शान्ति-जनकता है जबकि सूर्य में तीव्र उष्णता है जो समस्त कर्मों को भस्म करने में समर्थ है। इन योगदृष्टियों को पातंजलयोगदर्शन के आलोक में क्रमश: यम-नियमादि अष्टांगयोगों के साथ तथा खेदादि आठ दोषों के परिहारक रूप में भी आचार्य हरिभद्र ने बतलाया है। इनसे अद्वेष आदि गुणों की क्रमशः प्राप्ति भी बतलाई है। योगदृष्टियों का विवरण इस प्रकार है - 1. मित्रादृष्टि'7- इसे 'योगबीज' कहा गया है क्योंकि यहाँ बीज रूप में सदृष्टि की प्राप्ति होती है जिससे साधक अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच यमों (व्रतों) के पालन करने की इच्छा करता है परन्तु पूर्वजन्म के असद्-संस्कारों के कारण व्रतों का पालन नहीं कर पाता है। सर्वज्ञ को नमस्कार करता है, आचार्य आदि की यथोचित सेवा करता है, स्वाध्याय, पूजा आदि भी करता है। यह मित्रादृष्टि तृणाग्नि-कण की तरह अल्प-स्थायी तथा मन्द है। साधक अनुचित कार्य करने वालों से द्वेष (क्रोध) नहीं करता है और शुभकार्य करने में खेद का अनुभव नहीं करता है। अतः इस दृष्टि वाले में 'अखेद' और 'अद्वेष' गुण पाए जाते हैं। यथाप्रवृत्तिकरण' द्वारा ग्रन्थिभेद की ओर अग्रसर होता है। यद्यपि इसका प्रथम गुणस्थान माना गया है परन्तु सामान्य ओघदृष्टि वाले मिथ्यादृष्टि से इसका उन्नत स्वभाव होता है। 2. तारादृष्टि8- इसमें शौच (शारीरिक-मानसिक शुद्धि), सन्तोष (आवश्यक आहारादि को छोड़कर संतोषवृत्ति), तप (कष्ट-सहिष्णुता), ईश्वर-प्रणिधान (परमात्म-चिन्तन) रूप नियमों का पालन करते हुए आत्महित के कार्य करने में उद्वेग (अरुचि) नहीं होता है तथा तत्त्व-चिन्तन की जिज्ञासा बलवती होती है। योगियों की कथा सुनने में प्रीति होती है। सम्यग्ज्ञान के अभाव में सत् कार्यों को करते हुए भी राग-द्वेष आदि में प्रवृत्त रहता है। इतना अवश्य है कि मित्रादृष्टि की अपेक्षा इसका राग-द्वेष कुछ कम होता है और चारित्रिक-विकास उससे उन्नत होता है। यह योगबीज के अंकुरण के पूर्व की अवस्था है। इसका ओज कण्डे की अग्निवत् होता है। 3. बलावृष्टि - इस योगदृष्टि में मन की स्थिरता पूर्व की अपेक्षा अधिक सुदृढ़ हो जाती है। चारित्र-पालन का अभ्यास करते-करते चित्तवृत्तियों को एकाग्र करने की सामर्थ्य (बल) प्राप्त हो जाती है। फलस्वरूप पद्मासन आदि विविध सुखासनों का आश्रय लेकर आलस्य न करते हुए चारित्र का विकास करता है। जैसे युवक और युवती एक दूसरे में दत्तचित्त होकर आनन्द का अनुभव करते हैं वैसे ही बलादृष्टि वाला साधक शास्त्र-श्रवण, देव-पूजा आदि में आनन्द का अनुभव करता है पौद्गलिक विषयों की तृष्णा शान्त हो जाती है। कंडे की अग्नि के ओज की अपेक्षा इसका ओज काष्ठ-अग्नि की तरह अधिक होता है। योग-बीज का अंकुरण इसमें होने लगता है। 'शुश्रुषा-शक्ति' प्रकट हो जाती है। शास्त्र-श्रवण न मिलने पर भी शुभभाव के कारण कर्मक्षय करता है। शुभ कार्य में प्रायः विघ्न नहीं आते। यदि विघ्न आते भी हैं तो दूर हो जाते हैं। अर्थात् 'क्षेपदोष' (विघ्न-आना) नहीं रहता है। 4. दीप्रा दृष्टि-- इस योगदृष्टि में आध्यात्मिक या भाव-प्राणायाम आवश्यक होता है। आध्यात्मिक या भाव प्राणायाम में रेचक (बाह्य-परिग्रहादि के ममत्व को बाहर निकालना), पूरक (आन्तरिक आत्म-विवेक भाव अन्दर भरना) और कुम्भक (आत्मभावों को अन्दर स्थिर करना) अवस्थाएँ होती हैं। यहाँ योगी तत्त्वश्रवण से संयुक्त होकर 'उत्थान' (चित्त की अशान्ति) नामक दोष से रहित होता है। दीपक के प्रकाश की तरह इसमें स्थिरता तो होती है परन्तु जैसे दीपक हवा से बुझ जाता है वैसे ही तीव्र मिथ्यात्व के उदय होने पर सच्चारित्र नष्ट हो जाता है। जैसे दीपक अपने प्रकाश के लिए पर (तेल) पर आश्रित है वैसे ही यहाँ परावलम्बिता (आत्मा से भिन्न पदार्थ पर आश्रित) है। इसमें पूर्ववर्ती शुश्रूषा गुण 'श्रवण गुण' में परिवर्तित हो जाता है। बोध की स्पष्टता तो होती है परन्तु सत्यासत्य आदि का सूक्ष्मबोध नहीं हो पाता। आसक्ति की विद्यमानता होने से 'अवेद्यसंवेद्यपद' (पूरी परीक्षा किये बिना स्व-अभिनिवेशवश सत्य मानकर अनुसरण करना) की स्थिति है। इसीलिए इस दृष्टि तक प्रतिपात (पतन) स्वीकार किया गया है। यम-नियमादि व्रतों का पालन करने तथा शान्त, विनीत, मृदु, सदाचारी होने पर भी इन चारों दृष्टियों का अन्तर्भाव मिथ्यात्व अवस्था में किया गया है। 383

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