Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 401
________________ कितने सुन्दर सरल शब्दों में कर्मोदय से न घबराने का तथा उस समय वीतरागी बनकर पुनः कर्मबन्ध से मुक्ति का मार्ग बतलाया है। संस्कृत शब्दों की अठखेलियों में भरा गूढ़ रहस्य - श्रमणशतकम् का निम्न पद्य द्रष्टव्य है - निजस्य गतमदा नवः समावहन्तस्तं समं दानवः। क एति कामदा नवस्तानाह नुतयमदानवः / / 86 समग्र, पृ. 89 इसी का हिन्दी भावानुवाद - गम्भीर-धीर यति जो मद ना धरेंगे और भावपूर्ण स्तुति भी निज की करेंगे। वे शीघ्र मुक्ति ललना वर के रहेंगे, ऐसा जिनेश कहते सुख को गेहेंगे।। अर्थ - जो यति मद को छोड़कर निजात्मा की स्तुति (ध्यान) करेंगे, वे शीघ्र ही मुक्तिरमा का वरण करके सुख को प्राप्त करेंगे। यहाँ संक्षेप में जैनशास्त्रों का सार (गूढरहस्य) प्रकट किया गया है। शब्दों से सङ्गीत तथा पदलालित्य टपक रहा हिन्दी गद्यकाव्य में अनेकान्त की व्याख्या - अनेकान्त की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि समता ही अनेकान्त का हार्द है - जो छह दर्शनों को लेकर अलग-अलग भाग रहे हैं उन सभी को एकत्र करके समझने वाला यह जैनदर्शन है। मुनि बनने के उपरान्त समता आनी चाहिए तभी अनेकान्त का हार्द विश्व के सामने रख सकोगे। यदि समता नहीं रखोगे तो जैनदर्शन को भी नहीं समझ सकोगे। (समग्र 4 पृ. 177-178) यही अनेकान्त का प्रेक्टिकल रूप है। इसी बात को समतारूपी अरुणिमा को लक्ष्य करके अन्यत्र कहा है हिन्दी कविताओं में - समता अरुणिमा बढ़ी, उन्नत शिखर पर चढ़ी। निजदृष्टि निज में गड़ी, धन्यतम है यह घड़ी।। झर झर झरता झरना, कहता चल चल चलना। उस सत्ता से मिलना पुनि पुनि पड़े न चलना।। इसमें पदलालित्य और अर्थगाम्भीर्य बहुत ही सुगम शब्दों में निरूपित है। झरना जैसे बहते-बहते जब समुद्र की अथाह परम सत्ता में विलीन हो जाता है तो फिर उसका बना बन्द हो जाता है वैसे ही संसारी जीव संसार में भटकते हुए परमात्म की सत्ता में जब समा जाता है तो उसका पुनरागमन नहीं होता है। इसी परम सत्ता की प्राप्ति हेतु हितमितप्रिय शब्दों के माध्यम से तथा स्व-पर कल्याण के उद्देश्य को दृष्टि में रखकर साधना पथारूढ साधक-सन्तों को परम सत्ता का मनन मन्थन कर नवनीत के रूप में विपुल साहित्य का निर्माण किया है जो अध्यात्म रस से परिपूरित है। पूजा के योग्य कौन है ? आपकी दृष्टि में संसारी जीवों में परिग्रही ऐलक, क्षुल्लक, आर्यिका आदि तथा असंयमी क्षेत्रपाल, पद्मावती आदि देवियाँ परिग्रह के सद्भाव के कारण न तो परिक्रमा के न पादप्रक्षालन के और न अष्टद्रव्यपूजन के योग्य हैं। केवल निष्परिग्रही मुनि ही पूजा के योग्य हैं। पंच परमेष्ठी सदा पूज्य हैं। आपकी शब्द-साधना, तपस्साधना, ज्ञानसाधना अद्भुत है। आप शब्दों के नाना अर्थ निकालने में कुशल शिल्पी हैं तथा हृदय के अनुभूत भावों को प्रकट करने में जादूगर हैं। आपके विपुल काव्यसाहित्य को 'महाकवि आचार्य विद्यासागर ग्रन्थावली' के नाम से तथा 'समग्र' के नाम से चार खण्डों में प्रकाशित किया गया है। समग्र' के प्रथम खण्ड में संस्कृत के पाँच शतक (पद्यानुवाद सहित), द्वितीय खण्ड में प्राचीन आचार्यों द्वारा रचित प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के आध्यात्मिक 18 ग्रन्थों का पद्यानुवाद, तृतीय खण्ड में हिन्दी काव्य, कवितायें, शतक एवं भक्तिगीतों और चतुर्थ खण्ड में गद्यात्मक प्रवचनों का संग्रह है। आपकी हिन्दी पद्य रचनाएँ छन्दोबद्ध तथा आधुनिक उन्मुक्तछन्द वाली हैं परन्तु संस्कृतकाव्य छन्दोबद्ध ही है। __ वस्तुतः आप इस युग के मसीहा हैं, आचार्य कुन्दकुन्द के प्रतिबिम्ब हैं, जैन श्रमण संस्कृति के संरक्षक हैं, तीर्थ उन्नायक हैं, रत्नत्रय के सजग प्रहरी हैं अध्यात्मरस परिपूरित काव्यकला के चतुर शिल्पी हैं जिनके रिमोट कन्ट्रोल से शब्द नृत्य करते हुए संचालित होते हैं। शब्दों में ओज, प्रसाद, लालित्य, सङ्गीत आदि गुण हैं। आपका एक भी वाक्य या पद्य निरर्थक नहीं है। सभी नीति वाक्यवत् मनन के योग्य हैं। आपकी 'मूकमाटी' तो अद्भुत है, जैनधर्म का सार उसमें समाहित है। साथ ही वर्तमान समाज, संस्कृति, राजनीति आदि पर अच्छे व्यङ्ग्य हैं। सतत पठनीय एवं मननीय है। 381

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