Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 405
________________ 7,8 7 प्रभा ध्यान तत्त्वप्रतिपत्ति रुक्-त्याग सूर्यप्रभा अपूर्व शान्ति, विच्छिन्न (परिशुद्ध (रागद्वेष व्याधित्याग) प्रवाही ध्यान प्रतिपत्ति) 8 परा समाधि आत्मस्वभाव असङ्गाभाव चन्द्रप्रभा 8-14 अविच्छिन्न प्रवाही ध्यान, में प्रवृत्ति (पूर्णता) / मुक्ति लाभ गुणस्थान विवेचन की दृष्टि से आचार्य हरिभद्र ने प्रथम चार दृष्टियों का समावेश प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में किया है। पञ्चम स्थिरा और छठी कान्तादृष्टि का समावेश चतुर्थ, पञ्चम और षष्ठ इन तीन गुणस्थानों में किया है। प्रभा नामक सातवीं दृष्टि का समावेश सातवें और आठवें गुणस्थान में किया है। परा नामक आठवीं दृष्टि का समावेश आठवें से चौदहवें गुणस्थान में किया है। अर्थात् उन-उन गुणस्थानों में यथाकथित योगदृष्टियाँ सम्भव हैं। यदि कथंचित् अपेक्षाभेद से प्रथम चार गुणस्थानों तक प्रथम चार योगदृष्टियों की सम्भावना स्वीकार की जाए तो अनुचित न होगा, ऐसा मेरा विचार है। प्रथम चार योग-दृष्टियों से दर्शन-मोहनीय का क्षय करके सम्यग्दर्शन की प्राप्ति तथा अन्तिम चार से चारित्र-मोहनीय का क्षय करके केवलज्ञान एवं मोक्ष-प्राप्ति होती है। ये आठों योगदृष्टियाँ आत्मविकास और वीतरागता की ओर ले जाने में सोपानवत् हैं। सयोग-केवली और अयोग-केवली में भी यही अर्थ है। सन्दर्भ 1. कायवाड्मनःकर्मयोगः / स आश्रवः / तत्त्वार्थसूत्र 6.1-2 2. भगवतीआराधना (गाथा 21 की अपराजितसूरि की विजयोदया टीका में 'जोग-परिकम्म' को स्पष्ट करते हुए योग के अनेक अर्थ बतलाते हुए कहा है- योगशब्दोऽनेकार्थः। 'योग-निमित्तं ग्रहणं' इत्यात्मप्रदेशपरिस्पन्दं त्रिविधवर्गणासहायमाचष्टे / क्वचित्सम्बन्ध-मात्र-वचनः 'अस्त्यानेन योग' इति / क्वचिद्धयानवचनः यथा 'योगस्थित' इति / इहायं परिगृहीतः। ततो ध्यानपरिकरं करोतीति यावत् / रागद्वेषमिथ्यात्वासंश्लिष्टमर्थयाथात्म्यस्पर्शि प्रतिनिवृत्तिविषयान्तरपञ्चारं ज्ञानं ध्यानमुच्यते। 3. देखें, तत्त्वार्थसूत्र, समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, समाधिशतक, ध्यानशतक, मोक्षपाहुड, परमात्मप्रकाश, योगसार, आत्मानुशासन, योगसारप्रभृत, ज्ञानसार, तत्त्वानुशासन, ज्ञानार्णव, अध्यात्मसार, पातंजलयोगसूत्र, योगविंशिका, योगप्रदीप, अध्यात्मकल्पद्रुम आदि। 4. योगश्चित्तवित्तिनिरोधः / पातंजलयोगसूत्र, 1.2 5. योगदृष्टिसमुच्चय में 227 संस्कृत पद्य हैं जिस पर 1175 श्लोकप्रमाण स्वोपज्ञवृत्ति भी है। 6. चौदह गुणस्थान कमशः इस प्रकार हैं- 1. मिथ्यात्व, 2. सासादन, 3. मिश्र, 4. अविरतसम्यक्त्व, 5. देशविरत, 6. प्रमत्तसंयत, 7. अप्रमत्तसंयत, 8. अपूर्वकरण, 9. अनिवृत्तिकरण या निवृत्तिबादर, 10. सूक्ष्मसाम्पराय, 11. उपशान्तमोह, 12. क्षीणमोह, 13. सयोगकेवली और 14. अयोगकेवली। 7. सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते से बन्धः / त. सू. 8.23 8. पञ्चास्तिकाय, 128-129 9. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग 1, पृ. 90 10. सच्छृद्धासङ्गतो बोधो दृष्टिरित्यभिधीयते। असत्प्रवृत्तिव्याघातात्सत्प्रवृत्तिपदावहः / / योगदृष्टिसमुच्चय, 17 समेघामेघरात्र्यादौ सग्रहाद्यभ्रंकादिवत्।।। ओघदृष्टिरिह ज्ञेया मिथ्यादृष्टीतराश्रया।। योगदृष्टिसमुच्चय, 14 11. वही, 1 12. वही, 13 13. जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन, पृ. 204 14. योगदृष्टिसमुच्चय, 13-15 15. वही, 15 16. यमादियोगयुक्तानां खेदादिपरिहारतः / / अद्वेषादिगुणस्थानं क्रमेणैषा सतां मता।। योगदृष्टिसमुच्चय 16, तथा देखें गाथा 16, पृ. 1 फुटनोट 385 47

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