________________ प्राकृत वैयाकरणों ने संस्कृत के शब्दों को प्रकृति मानकर जो प्राकृत शब्दों की सिद्धि की है उसका कारण है संस्कृतज्ञों को प्राकृत सिखाना। इसीलिए प्राकृत व्याकरण के सूत्र भी संस्कृत में बनाये गये हैं। प्राकृत में ऐसे बहुत से शब्द तथा प्रत्यय हैं जिनका संस्कृत के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है उन्हें देश्य कहा गया है या निपात से सिद्ध माना गया है। अतः सभी प्राकृत शब्दों की प्रकृति संस्कृत नहीं मानी जा सकती है। प्राकृत शब्द की व्युत्पत्तिमूलक दो विचारधारायें प्रचलित हैं - (क) प्राकृत की प्रकृति संस्कृत नहीं, जनभाषा है। (1) प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धं प्राकृतम्। (2) प्राक् पूर्व कृतं प्राकृतं बालमहिलादिसुबोधं सकलभाषानिबन्धभूतं वचनमुच्यते। - पाणिन्यादिव्याकरणोदितशब्दलक्षणेन संस्करणात् संस्कृतमुच्यते। (3) प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम्। (4) प्रकृतिरेव प्राकृतं शब्दब्रह्म। तस्य विकारा विवर्ता वा संस्कृतादय इति मन्यते स्म कविः। (5) स्याद्योनिः किल संस्कृतस्य सुदशां जिह्वासु यन्मोदते।। इन व्युत्पत्तियों के आधार पर कहा जा सकता है कि प्राकृत ही सभी भाषाओं की जननी है। जैसाकि वाक्पतिराजकृत गउडवहो में कहा गया है। सयलाओ इमं वाया विसंति एत्तो य णेति वायाओ। एंति समुदं च्चिय णेति सायराओ च्चिय जलाईं। यही बात 11 वीं शताब्दी के नमिसाधु ने रुद्रट के निम्न काव्यालङ्कार की व्याख्या करते हुए कही है - प्राकृतसंस्कृतमागधपिशाचभाषाश्च शौरसेनी च। षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः॥ (ख) प्राकृत की प्रकृति संस्कृत है (1) प्रकृति: संस्कृतम्। तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम्। (2) प्रकृति: संस्कृतम् / तत्र भवं प्राकृतमुच्यते / (3) प्रकृतेः आगतं प्राकृतम्। प्रकृतिः संस्कृतम्। (4) प्राकृतस्य तु सर्वमेव संस्कृतं योनिः (5) प्रकृतेः संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृती मता।' (6) प्रकृतेः संस्कृताद् आगतं प्राकृतम्। यहां प्राकृत की योनि संस्कृत बतलाने का मुख्य कारण है संस्कृत के विद्वानों को तद्भव शब्दों की व्युत्पत्ति समझाना। इससे देश्य शब्दों का अनुशासन नहीं हो सका। यही कारण है कि संस्कृत नाटकों की प्राकृत में कृत्रिमता कालक्रम से बढ़ती गई। वस्तुत: मूल प्रकृति संस्कृत और प्राकृत की एक ही है। प्राकृत को संस्कृत भाषा की जननी कहना उसके कथ्य रूप की अपेक्षा से है, साहित्यिक रूप की अपेक्षा से नहीं। संस्कृत और प्राकृत का एक दूसरे पर प्रभाव प्राकृत जनभाषा के रूप में वैदिक काल में थी। विद्वान् ऋषियों ने उस समय की साहित्यिक भाषा को छान्दस् नाम देकर उसे जनभाषा से पृथक् किया होगा। परन्तु उसमें जनभाषा के प्रचुर तत्त्व विद्यमान रह गए होंगे। कालान्तर में पाणिनि आदि आचार्यों के द्वारा संस्कृत व्याकरणग्रन्थ लिखे गए, जिससे जनभाषा और संस्कृत दोनों समानान्तर रूप से चलने लगीं। समानान्तर भाषायें होने से दोनों पर एक दूसरे का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। संस्कृत नाटकों को देखने से ज्ञात होता है कि राजा आदि सुशिक्षित व्यक्ति संस्कृत में बोलते हैं और अशिक्षित निम्न पुरुष पात्र तथा स्त्रियाँ विभिन्न प्राकृतों में बोलते हैं। राजा आदि प्राकृत समझ लेते हैं और नीच-पात्रादि संस्कृत समझ लेते हैं। इससे स्पष्ट है कि संस्कृत विद्वानों की साहित्यिक भाषा थी और अशिक्षित या अर्धशिक्षित जनसमुदाय की भाषा प्राकृत थी, परन्तु वे सभी प्रायः दोनों प्रकार की भाषायें समझते थे। परस्पर व्यवहार होने से दोनों भाषाओं पर परस्पर प्रभाव सुनिश्चित है। प्राकृत केवल नीचों और स्त्रियों की भाषा नहीं थी 391