________________ उपयोग चतु:स्थान व्यञ्जन दर्शनमोहोपशमना दर्शनमोहक्षपणा संयमासंयमलब्धि चारित्रलब्धि चरित्र मोहोपशमना चारित्रमोहोपक्षपणा क. प्रस्थापक ख. संक्रामक क्रमशः 5,11,4,3 = 23 ग. अपवर्तना ,,3,1,4 = 08 घ. कृष्टिकरण ,, 3,2,12,3,4,2,4,4,2,5,0=41 ङ. कृष्टक्षपणा ,, 1,1,10,2 = 14 च. क्षीणमोह छ. संग्रहणी x योग 94 ___86 महायोग = 180 गाथायें, अन्य (12+6+35)53 गाथायें, महायोग 233 गाथायें व्याख्या साहित्य आचार्य परम्परा से यह आगम ग्रन्थ आर्यमंक्षु और नागहस्ती (ई.93-162) को प्राप्त हुआ। इन्हीं दोनों के पादमूल में बैठकर यतिवृषभाचार्य (ई. 150-180) को प्राप्त हुआ जिस पर उन्होंने 6000 चूर्णि सूत्रों की रचना की। इन्हीं चूर्णि सूत्रों को आधार बनाकर उच्चारणाचार्य (ई. 180 करीब) ने बारह हजार लोक प्रमाण उच्चारणवृत्ति लिखी। तदनन्तर आचार्य बप्पदेव (ई. 5-6 शताब्दी) 60000 शोक प्रमाण अन्य टीका लिखी। इसी के बाद वीरसेनाचार्य (ई. 816 करीब) ने प्रथम चार विभक्तियों पर 2000 शोक प्रमाण जयधवला टीका लिखी जो पूरी टीका का 1/3 भाग है। इसके बाद वीरसेनाचार्य के दिवंगत हो जाने पर उनके शिष्य जिनसेनाचार्य द्वितीय (ई.837) ने शेष 2/3 भाग पर 40000 शोक प्रमाण टीका लिखकर जयधवला टीका को पूरा किया। इस तरह जयधवला टीका 6000 शोक प्रमाण हो गई। यह टीका प्राकृत-संस्कृत मिश्रित भाषा में है। कर्णाटक भाषा में भी 84000 शोक प्रमाण चूडामणि टीका तुम्बलूराचार्य ने लिखी। इस तरह विपुल व्याख्या साहित्य लिखा गया। कषायपाहुड़ का वैशिष्ट्य और प्राचीनता - कर्मग्रन्थविषयक श्वेताम्बराचार्य कृत कम्मपयडि तथा सतक ये दो प्राचीन ग्रन्थ मिलते हैं। इन दोनों का उद्गम स्रोत 'महाकम्मपयडिपाहुड' माना जाता है। जब कषायपाहुड के साथ इनकी तुलना करते हैं तो ज्ञात होता है कि कम्मपयडि में कषायपाहुड की 17 (13+4) गाथायें कथञ्चित् पाठभेद के साथ मिलती है। कम्पयडि और सतक दोनों संग्रहग्रन्थ हैं इसीलिए इनकी चूर्णियों में इन्हें 'कम्मपयडिसंग्रहणी' और 'सतकसंग्रहणी' कहा गया है। कषायपाहुड का विषय व्यापक और प्राचीन है। दिगम्बर परम्परा में गुणधर को प्रथम आगम सूत्रधार माना जाता है। डॉ. नेमिचन्द्रशास्त्री ने 'छक्खंडागम के प्रवचनकर्ता धरसेनाचार्य से करीब 200 वर्ष पूर्ववर्ती माना है। सन्दर्भ - 1. पुव्वम्मि पंचमम्मि दु दसमे वत्थुम्हि पाहुडे तदिए। पेजं ति पाहुडम्मि दु हवदि काषायाण पाहुडं णाम।। क. पा. गाथा 1 2. एदं पेजदोसपाहुडं सोलसपदसहस्सपमाणं होंति असीदि सुदमेत्तं गाहाहि असंघारिदं / ज. ध. 1.68.87 3. गाहासदे असीदे अत्थे पाण्णारसधा विहत्तम्मि। वोच्छामि जयि गाहा जम्मि अत्थम्मि।। क. पा. गाथा 2 389