Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 408
________________ हो सकता है परन्तु जब उस दर्शनमोहनीय का क्षय कर देते हैं तब सदाकाल आत्मसाक्षात्कार बना रहता है। इस अधिकार में दर्शनमोह के क्षपण की प्रक्रिया तथा तत्सम्बन्धी साधनसामग्री का वर्णन है। दर्शनमोह के क्षय का प्रारम्भ कर्मभूमिज मनुष्य ही कर सकता है और उसकी पूर्णत: चारों गतियों में की जा सकती है। यदि क्षपण क्रिया के पूर्ण होने के पूर्व ही उस मनुष्य की मृत्यु हो जाती है तो वह आयुबन्धानुसार चारों गतियों में उत्पन्न हो सकता है। परन्तु ऐसा जीव अधिकतम तीन भव धारण करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है। (12) संयमासंयमलब्धि - बारहवें और तेरहवें अधिकारों में केवल एक गाथा है। देशसंयमी जीव (पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक) के जो विशुद्धपरिणाम होते हैं उसे संयमासंयमलब्धि कहते हैं। देशसंयम या संयमासंयमलब्धि के लिए आवश्यक साधन-सामग्रियों का इस अधिकार में विवेचन है। देशसंयम की प्राप्ति अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयाभाव में होती है। (13) संयमलब्धि (चरित्रलब्धि) प्रत्याख्यानावरण कषाय का भी जब उदयाभाव हो जाता है तब संयमलब्धि प्राप्त होती है और जीव महाव्रतों का धारी मुनि बन जाता है। महाव्रती के परिणामों के कषायों के उदयानुसार उतार-चढाव होता रहता है। तदनुसार छठे-सातवें गुणस्थान में झूला करता है। (14) चारित्रमोहोपशमना- इस अधिकार में 8 गाथायें हैं। चारित्रमोह का उपशमक (8 से 11 गुणस्थानवर्तीजीव) किस तरह ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ता है और कषायादि के उदय होने पर कैसे और कहाँ तक पतन कर सकता है। इसका कथन है इतना निश्चित है कि उपशमक (उपशमश्रेणी में आरूढ़) का पतन षष्ठ-सप्तम गुणस्थान तक अवश्य होता है। इसके बाद यदि क्षपक श्रेणी पकड़ लेता है तो उत्तरोत्तर विशुद्धि करते हुए मुक्त हो जाता है। ऐसा न होने पर तीव्र कषायोदय होने पर प्रथम गुणस्थान तक भी पतन हो सकता है। (15) चारित्र- मोहक्षपणा- इस अधिकार में 28 गाथायें हैं तथा 86 भाष्य गाथायें हैं। चारित्रमोहनीय का क्षय अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण पूर्वक होता है। चारित्रमोहनीय कर्म की प्रकतियों का क्षय किस क्रम से होता है इसका विवेचन है। इस तरह कषायक्षय की प्रक्रिया और ध्यान का विस्तृत विवेचन इस अधिकार में है। इसके उपरान्त मुक्तिलाभ की प्राप्ति हो जाती है। गाथा संख्याविचार - ग्रन्थकार ने यद्यपि 180 गाथाओं को लिखने का उल्लेख (निर्देश) किया है परन्तु वर्तमान में 233 गाथायें मिलती है। इन अतिर्कि 53 गाथाओं की रचना किसने की है। इस विषय में मतभेद हैं। श्री वीरसेन स्वामी इन 53 गाथाओं को गुणधर-प्रणीत मानते हैं परन्तु इन गाथाओं की रचनाशैली की भिन्नता और लेखक के निर्देश को देखते हुए इन्हें गुणधरप्रणीत नहीं माना जा सकता है। कुछ विद्वान् नेमिचन्द्रशास्त्री आदि इन्हें नागहस्ति कृत कहते हैं। इन 53 गाथाओं में से 12 गाथायें विषय संबंध-ज्ञापक हैं, 6 गाथायें अद्धापरिमाण निर्देशक हैं तथा 35 गाथायें संक्रमणवृत्ति से सम्बद्ध हैं। संक्रमणवृत्ति वाली 35 गाथाओं में से 13 संक्रम अधिकार की गाथायें सामान्य पाठभेद के साथ अनुक्रम से श्वेताम्बराचार्य श्री शिवशर्मसूरि कृत (वि.सं.5 या ई.सं. 5 पूर्वार्द्ध) 'कर्मप्रकृति ग्रन्थ में मिलती हैं। इनके अतिरिक्त दर्शनमोहोपशमना की चार गाथायें भी कुछ पाठभेद के साथ मिलती है। सम्बन्धज्ञापक और अद्धापरिमाण वाली 18 (12+6 = 18) गाथाओं पर यतिवृषभाचार्य की चूर्णि उपलब्ध नहीं है। अतः इन्हें गुणधर प्रणीत नहीं माना जा सकता है। जधवलाकार के कथनानुसार चूर्णिकार को 180 गाथायें ही प्राप्त थी। समस्त 233 गाथाओं की वर्तमान स्थिति निम्न प्रकार है - क्र.सं. अर्थाधिकार नाम मूल गाथायें भाष्य गाथायें ग्रन्थनाम, स्रोत, गाथासंख्या अधिकार संख्या प्रकृति विभक्ति स्थिति विभक्ति अनुभाग विभक्ति प्रदेशविभक्ति बंधक वेदक 388

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