________________ पूरी होने पर उदय में आकर इष्ट अनिष्ट फल देते हैं। कर्मबन्ध चार प्रकार का होता है- (1) प्रकृतिबन्ध (ज्ञान-दर्शनादि को रोकने तथा सुख-दुःखादि देने का स्वभाव पड़ना),(2) प्रदेशबन्ध (कर्म परमाणुओं के बंधने की संख्या का परिमाण), (3) स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध / इनमें प्रकृति और प्रदेशबन्ध मन-वचन-काया की प्रवृत्ति रूप योग से होते हैं। स्थिति और अनुभाग बन्ध कषायों के कारण होते हैं। इस स्थिति-विभक्ति नामक द्वितीय अधिकार में स्थितिबन्ध के साथ प्रकृतिबन्ध का भी विवेचन किया गया है। प्रकृति-विभक्ति के दो भेद किये गये हैं - 1. मूलप्रकृति (मोहनीय कर्म) और 2. उत्तर प्रकृति (मोहनीय कार्य की उत्तर प्रकृतियाँ) इसमें विभिन्न अनुयोगों के द्वारा चौदह मार्गणाओं का आश्रय लेकर मोहनीय कर्म की स्थिति का विवेचन किया गया है। (3) अनुभाग-विभक्ति - कर्मों की फलदानशक्ति का विचार दो प्रकार से किया है - मूलप्रकृति अनुभाग और उत्तरप्रकृति अनुभाग। यह अनुभाग उदयकाल में बन्ध के समय जितना था उतना भी रह सकता है तथा हीनादिक भी हो सकता है। प्रसङ्गतः इस अधिकार में घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा का भी विचार है। घातिसंज्ञा के दो भेद हैं - सर्वघाती और देशघाती। एकस्थानिक आदि घात संज्ञा के चार भेद हैं- एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतु:स्थानिक। इस तरह इसमें अनुभाग के विभिन्न भेद-प्रभेदों का वर्णन है। (4) प्रदेश विभक्ति- कर्मों के बन्ध के समय तत्काल बन्ध को प्राप्त कर्मों को जो कर्म-परमाणुओं का द्रव्य मिलता है उसे प्रदेश बन्ध कहते हैं। इसके दो भेद हैं - प्रथम बन्ध के समय प्राप्त द्रव्य और द्वितीय बन्ध होकर सत्ता में स्थित द्रव्य / कषायपाहुड में द्वितीय प्रकार के प्रदेश बन्ध का विचार है। इस अधिकार में उत्कर्षण, आपकर्षण, संक्रमण प्रभृति कर्मों की स्थितियों का भी विचार है। (5) बंधक - इस अधिकार में बन्ध और संक्रम इन दो विषयों का कथन है। बन्ध के दो भेद हैं - अकर्मबन्ध और कर्मबन्ध / जो कार्माण वर्गणायें कर्मरूप परिणत नहीं हैं उनका कर्मरूप से परिणत होना अकर्मबन्ध है तथा कर्मरूप से परिणत पुद्गलस्कन्धों का एक कर्म से अपने सजातीय अन्य कर्मरूप परिणमन करना कर्मबन्ध है। यह द्वितीय प्रकार का कर्मबन्ध नामक भेद ही संक्रम है। इसीलिए इस बंधक अधिकार में बन्ध और संक्रम दोनों समाहित हैं। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चाररूपों में कर्मों का परिणमन बंधक अधिकार का विषय है। (6) वेदक - इस अधिकार में चार गाथायें हैं। इसमें बतलाया है कि संसारी जीव मोहनीय कर्म और उसकी अवान्तर प्रकृतियों का कहाँ और कितने समय तक सान्तर या निरन्तररूप से वेदन (अनुभवन) करता है। उदय और उदीरणा से भेद से यह अधिकार दो भागों में विभक्त है। कर्मों का यथाकाल उदय में आकर फलविपाक होना उदय कहलाता है। जिन कर्मों का उदयकाल नहीं आया है उसे उपाय विशेष से तप आदि द्वारा उदय में लाना उदीरणा है। (7) उपयोग - इस अधिकार में सात गाथायें है। संसारी जीवों के क्रोधादिरूप चारों कषायों के परिणामों को उपयोग कहा है। एक जीव के एक कषाय का उदय कितने समय तक रहता है ? एक भव में एक कषाय का उदय कितनी बार हो सकता है ? कितने भवों तक हो सकता है ? इत्यादि कषाय सम्बन्धी विविध बातों का इस अधिकार में विवेचन है। (8) चतुःस्थान- इस अधिकार में सोलह गाथायें हैं। इसमें चारों कषायों की हीनाधिकता के आधार पर उनकी फलदान शक्ति को चार-चार भागों में विभक्त करके क्रमश: एक-स्थान, द्विस्थान, त्रिस्थान और चतुःस्थान कहा गया है। जैसे-क्रोध को क्रमश: हीन क्रम से पाषाण रेखावत्, पृथ्वीरेखावत्, बालुरेखावत् और जलरेखावत् बतलाया है। इसी तरह अन्य कषायों को जनना। इन चारों कषायों के सोलह स्थानों का निरूपण करते हुए कौन स्थान सर्वघाती है और कौन स्थान देशघाती है आदि का भी विचार किया गया है। (9) व्यञ्जन- इस अधिकार में पाँच गाथायें हैं। कषायों के पर्यायवाची नामों का उल्लेख करते हुए उनके विशेष अर्थ बतलाए हैं। यहाँ व्यञ्जन का अर्थ है पर्यायवाची शब्द। (10) दर्शनमोहोपशमना - इस अधिकार में 15 गाथायें हैं। दर्शन मोहनीय कर्म का एक अन्तमुहूर्त के लिए उपशमन करने पर जीव को एक अन्तमुहूर्त के लिए आत्मा के स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है। इस अवस्था में उसे अनिवर्चनीय आनन्द की प्राप्ति होती है। दर्शनमोहनीय कर्म के उपशमकजीव के कैसे परिणाम आदि होते हैं इसका कथन है। दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम चारों गतियों के जीव कर सकते हैं परन्तु वे संज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्तक हों। अन्त में प्रथमोपशमसम्यक्त्वी की विशिष्ट अवस्थाओं का वर्णन है। (11) दर्शनमोहक्षपणा- इस अधिकार में 5 गाथायें हैं / दर्शन के उपशम से आत्म-साक्षात्कार एक अन्तर्मुहूर्त तक ही 387