________________ स्वजनसज्जनयोः परिचारक ! चिरतरादुपयासि विचारक।। 20/19 मेरी नेत्रों के तारे, सरलजनों के उपकारक, वैरिनिवारक स्वजन पावन सेवक, बहुत दिनों बाद आ रहे हो अलङ्कारों के साथ पदलालित्य कथाप्यथामुष्य यदि श्रुतारात्तथा वृथा साऽर्य सुधासुधारा। कामैकदेशक्षरिणी सुधा सा कथा चतुर्वर्ग-निसर्गवासा // 1.3 यहाँ व्यतिरेक, यमक और अनुप्रास अलङ्कारों से अलङ्कृतपदलालित्य के साथ दीर्घपदों के प्रयोग से जन्य पदलालित्य भी है। विरोधाभास अलङ्कार के साथ पदलालित्य सदाचारविहीनोऽपि, सदाचारपरायणः। स राजापि तपस्वी सन्, समक्षोऽप्यक्षरोधकः // 28/5 रूपकालङ्कार के साथ आकाशनीराशयपुण्डरीकं, वदाम्यदोऽङ्कस्थितचञ्चरीकम् / यूनां मनो वर्त्मनि तर्तरीकं, तुरत्यहो कामरमामरीकम् // 15/57 चन्द्रवर्णन में कामदेव का मानो निर्मल आतपत्र है चन्द्रमा, अमृत से पूर्ण देवयाग है। उत्प्रेक्षा के साथ स्मरामरस्यामलमातपत्रं शृङ्गारवारस्य च ताम्रपत्रम्। विराजते सम्प्रति राजसत्रं सुधामयं श्रीधुसदाममत्रम्॥ 15.59 अनुप्रास के साथ सारं सतारं लसदङ्गहारं, मञ्जीरशिञ्जानमयोपहारम्। मित्रैः पवित्रैकतलेऽभिलाष्यं, दशा दशाङ्गं सुदृशां व लास्यम् // 27.17 उपमा के साथ -जिन देव के गुणों से समवसरण के चारों ओर स्थित वृक्षों की उपमा सुमनोभिरूपासिता हिता, मनुजेभ्यश्च फलोदयान्विताः। परितापहरा महीरुहाः परितः श्रीशगुणोपमावहाः // 26.56 इसी प्रकार अन्यत्र अलङ्कारों के प्रयोग में पदलालित्य नहीं छूटा है। जैसे - श्लेष के साथ (7.85), दृष्टान्त के साथ (26.73), समासोक्ति के साथ (8.59,14.7) उल्लेख के साथ (16.7), तद्गुण के साथ (14.11), वक्रोक्ति के साथ (14.10), श्रूषोपमा के साथ (14.5), विरोधाभास के साथ (1.12), रूपक के साथ (26.69), उत्प्रेक्षा के साथ (26.9,18) आदि। रसों में पदलालित्य (अ) ओजगुण और गौडी रीति के साथ वीररस में पदलालित्य उद्धृतसद्धलिघनान्धकारे, शम्पा सकम्पा स्म लसत्युदारे। रणाङ्गणे पाणिकृपाणमाला, चुकूजुरेवं तु शिखण्डिबालाः // 8.8 (ब) माधुर्यगुण और वैदर्भी रीति के साथ शृङ्गाररस में पदलालित्य हाला हि लालायितमन्तरङ, करोति बीजग्रहणेष्वभङ्गम् / हालाहलं प्राह जने त्रपाला, वालापिनी प्रीतपणस्य बाला16.31 (स) माधुर्यगुण और प्रसादगुण के साथ शान्तरस में पदलालित्य आपातमात्ररमणीयमणीय एतत् किम्पाकवत् परमपाकरणीयतेतः। पातुं नृपातुरतया तु न यातु कश्चिद् धर्म्य विपाकपटुकं कटुकं विपश्चित् // 27.64 अन्य उदाहरण धीरवीर जयकुमार ने संसार रूपी सागर के उत्तम तटस्वरूप भगवान् ऋषभदेव के चरणरूप वृक्ष के स्थान को प्राप्त किया। वहां नमस्कार करते हुए उन्होंने सात्त्विक भाव के कारण जाती हुई चञ्चल आंखों से युक्त हो मनोहर मोती 356