Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 389
________________ (ग) मनुष्यगति - यह श्रेष्ठ गति है क्योंकि यहाँ से जीव संयम और तप के द्वारा मोक्ष प्राप्त कर सकता है। पापाचरण करने पर सातवें नरक तक भी जा सकता है। अल्प आरम्भ-परिग्रह वाला जीव इस गति को प्राप्त करता है। यहाँ स्त्री, पुरुष और नपुंसक तीनों लिङ्गों के जीव होते हैं इस गति के सभी जीव संज्ञी पञ्चेन्द्रिय होते हैं इनका भी औदारिक शरीर होता है। (घ) देवगति - ये वैक्रियिक शरीरधारी होते हैं। अत: इनके नाखून, बाल, दाड़ी, हड्डी, मूंछ, खून आदि नहीं होते। अकालमृत्यु नहीं होती, परछाई नहीं पड़ती। पलकें नहीं झपकती, मल-मूत्र भी नहीं होता। भोगों की प्रचुर सामग्री कल्पवृक्षों से मिलती रहती है। ये संयम नहीं पाल सकते। जब भूख लगती है तो कण्ठ से अमृत झर जाता है, अत: मनुष्यों की तरह भोजन नहीं करना पड़ता है। ये पुरुष और स्त्रीलिङ्ग वाले होते हैं, नपुंसक नहीं। ये तीनों लोकों में पाये जाते हैं। इनकी जब मृत्यु आती है तो छ: माह पूर्व उनके गले की माला मुरझा जाती है। ये अवधिज्ञान के धारक होते हैं। सभी संज्ञी पंचेन्द्रिय होते हैं / यहाँ सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकार के होते हैं। संयम धारण करने में असमर्थ होने के कारण ये जैन मुनियों को आहार नहीं दे सकते। तीर्थङ्कर की पालकी नहीं उठा सकते (जब मुनि दीक्षा लेने जाते हैं)। देवगति के जीव चार प्रकार के होते हैं - 1. भवनवासी (10 भेद), 2. व्यन्तर (8 भेद), 3. ज्योतिष्क (5 भेद) और 4. वैमानिक कल्पवासी या कल्पोत्पन्न 1-16 स्वर्गों के देव और कल्पातीत (9 ग्रैवेयक, 9 अनुदिश और 5 अनुत्तर) के भेद से दो प्रकार के हैं। 'सर्वार्थसिद्धि' नामक अनुत्तर विमानवासी देव सर्वोत्तम हैं तथा एक भवावतारी होते हैं। सौधर्म इन्द्र, उसकी इन्द्राणी (शची), लौकान्तिक देव (5वें स्वर्ग ब्रह्मलोक के देव), सौधर्म इन्द्र के सभी लोकपाल तथा सभी दक्षिणेन्द्र ये सभी एक भवावतारी (मनुष्य गति में जन्म लेकर मुक्त होना) देव हैं ।अनुदिश और चार अनुत्तर देव द्विभवावतारी होते हैं। फिर देव पुनः मनुष्य होते हैं। एक भवावतारी भी हो सकते हैं। सभी सम्यग्दृष्टि होते हैं। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क आदि देवों को भवनत्रिक कहते हैं। ये मिथ्यादृष्टि होते हैं। देवियों की उत्पत्ति भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क इन भवनत्रिकों में तथा प्रथम द्वितीय वैमानिक स्वर्गों में ही होती है। आगे के स्वर्गों में देवियों का जन्म नहीं होता। दूसरे स्वर्ग से ऊपर के देव नियोगानुसार अपनी-अपनी देवियों को उठाकर ले जाते हैं। स्वर्ग) से 5-8 स्वर्ग के देव रूप देखकर, मात्र शब्द सुनकर (9-12 स्वर्ग), मात्र मन में चिन्तन करके (13-16 स्वर्ग के देव) कामवासना की पूर्ति करते हैं। आगे के कल्पातीत देव कामसेवन नहीं करते वहाँ देवाङ्गनायें भी नहीं होती। लौकान्तिक देव (देवर्षि) ब्रह्मचारी तथा द्वादशाङ्ग तथा चौदहपूर्वो के पाठी होते हैं तथा वे तीर्थङ्करों के तप कल्याणक के समय प्रतिबोधन करने आते हैं। ये सारस्वत आदित्य आदि के भेद से 8 प्रकार के हैं। क्रमश: 8 दिशाओं में रहते हैं। इनमें सब स्वतंत्र तथा समान हैं। इन्द्र आदि के अधीन नहीं। घातायुष्क तथा मिथ्यादृष्टि(जैनेतर लिङ्गी) जीव 12 वें स्वर्ग तक जा सकते हैं। द्रव्यलिङ्गी जैनसाधु नवग्रैवेयक तक तथा श्रावक 16 वें स्वर्ग तक जन्म ले सकते हैं। भावजिनलिङ्गी सर्वार्थसिद्धि तक या मोक्ष तक जा सकते हैं। अभव्य मिथ्यादृष्टि भी जिनलिङ्ग धारण करके नवग्रैवेयक तक जन्म ले सकता है। देवों की जघन्य आयु 10 हजार वर्ष और उत्कृष्ट 33 सागर तक है। विग्रहगति का भी उल्लेख शास्त्रों में मिलता है जिसका तात्पर्य है, एक जीव जब मरकर किसी भी गति में जाकर अन्य शरीर को धारण करता है तब मध्यवर्ती कालविग्रहगति कहलाती है। यह मोड़ा रहित तथा मोड़ा सहित (अधिकतम तीन मोडा) होती है। इस समय कार्मण और तेजस् शरीर रहता है। यह पृथक् गति नहीं है। गतियाँ 4 ही हैं। सिद्धों की गति को पंचमगति भी कहते हैं परन्तु वह गति भेदों में नहीं आती। (2) इन्द्रिय मार्गणा इन्द्र( ऐश्वर्यशाली) शब्द का अर्थ है 'आत्मा' और आत्मा के लिङ्ग (चिह्न) को इन्द्रिय कहते हैं। इन्द्र नामकर्म के उदय से जो रची जावे वह इन्द्रिय है। इसके दो भेद हैं - (1) भावेन्द्रिय और (2)द्रव्येन्द्रिय / मतिज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से आत्मा में विशुद्धि (अर्थ ग्रहण करने की शक्ति) उत्पन्न होती है और उससे उत्पन्न हुआ ज्ञान (शक्ति) भावेन्द्रिय है। आत्म-विशुद्धि को लब्धि (योग्यता) कहते हैं। उस विशुद्धि के द्वारा अपने विषयभूत रूपादि अर्थग्रहणरूप व्यापार उपयोग कहलाता है। लब्धि और उपयोग ये दोनों भावेन्द्रियां हैं। जाति नामकर्म के उदयसहित शरीरनामकर्मोदय से शरीर में स्पर्शनादि भावेन्द्रियों के चिह्न रूप द्रव्येन्द्रियाँ होती हैं। वे बाह्य- निवृत्ति और आभ्यन्तर निर्वृत्ति के भेद से दो प्रकार की हैं। इन्द्रिय संज्ञा को प्राप्त आत्मप्रदेशों में जो पुद्गल-प्रचय चक्षु आदि प्रतिनियत आकार 369

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