________________ चाहना 1. क्षायिक सम्यक्त्व - सात प्रकृतियों (चारित्र मोहनीय की अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क तथा दर्शनमोहनीय की मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक्त्व इन तीन प्रकृतियों) के आत्यन्तिक क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है। यह सुमेरुपर्वतवत् निष्प्रकम्प, निर्मल तथा अविनश्वर होता है क्योंकि यह कभी भी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता। यह 6 से 10 गुणस्थानों में भी हो सकता है परन्तु 12 से 14 गुणस्थानों में नियम से एकमात्र यह क्षायिक सम्यक्त्व ही होता है। 2. वेदक सम्यक्त्व या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व -देशघाती सम्यक्त्व दर्शनमोहनीय के उदय में रहते हुये जो चल, मलिन और अगाढ श्रद्धान होता है उसे वेदक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। इसमें एकदेशघातरूप सम्यक्त्व का वेदन होता है। यह 4-7 गुणस्थानों में प्रायः पाया जाता है। इससे आगे के गुणस्थानों में श्रेणी चढते समय मलरहित सम्यक्त्व चाहिये। 3. औपशमिक सम्यक्त्व - चारित्रमोहनीय की अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क तथा दर्शनमोहनीय की तीनों प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक सम्यक्त्व (उपशम सम्यक्त्व) होता है। यह कीचड़ के नीचे बैठ जाने पर निर्मल हुये जलवत् होता है जो कालान्तर में मलिन हो जाता है। यह दो प्रकार का है -प्रथमोपशम सम्यक्त्व और द्वितीयोपशम सम्यक्त्व। इनमें प्रथमोपशम 4-7 गुणस्थानों में होता है और द्वितीयोपशम 4-11 गुणस्थानों में होता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व अनादि मिथ्यादृष्टि को सर्व प्रथम होता है। सादि मिथ्यादृष्टि के भी सम्यग्मिथ्यात्व तथा समयक्प्रकृति की उद्वेलना होने पर प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है। यह पूर्वोक्त सात प्रकृतियों के उपशम से होता है। श्रेणी चढते समय क्षयोपशम सम्यक्त्व से जो उपशम सम्यक्त्व होता है वह द्वितीयोपशम सम्यक्त्व है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व होने के पूर्व पाँचवीं करणलब्धि (लब्धियां पाँच हैं - क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण। इनमें प्रथम चार लब्धियां सामान्य हैं जो भव्य अभव्य सभी प्राप्त कर लकते हैं) आवश्य होना चाहिये। करण लब्धि तीन प्रकार की है जो उत्तरोत्तर विशुद्ध परिणामों का परिपाक है - अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। यहां करण का अर्थ परिणाम है। लब्धि का अर्थ है कर्ममलरूप पटल की फलदान शक्ति (अनुभाग) की विशुद्धि, जिससे कर्ममल छट जाता है। अनिवृत्तिकरण के अन्तसमय में सम्यक्त्वमोहनीय की अन्तिम फालि के द्रव्य के नीचे के निषकों के साथ क्षेपण करने के अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होता है। अर्थात् अन्तिम स्थितिकाण्डक के समाप्त होने पर कृत्कृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होता है। 4. सासादन सम्यक्त्व - उपशम सम्यक्ल्व से पतित होता हुआ जीव जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं कर लेता है तब तक वह सासादन सम्यक्त्वी कहलाता है। इसका काल बहुत अल्प होता है। जैसे वृक्ष रूपी सम्यक्त्व से पतित होता हुआ फल जब तक जमीन (मिथ्यात्व) पर नहीं पहुँचता है तब तक का काल इसका होता है। यह दूसरे गुणस्थान में ही होता है। इसमें मिथ्यादर्शन के उदय का अभाव रहने पर भी आत्मा अनन्तानुबन्धी कषायों के उदय से मलिन हो जाता है, इसीलिये इसे सासादन(स+आसादन) कहते हैं। 5. सम्यग्मिथ्यात्व या मिश्र सम्यक्त्व - जो मन्दशक्ति के कारण तत्त्वों पर श्रद्धान तथा अश्रद्धान से युक्त है वह सम्यग्मिथ्यात्वी है। यह तीसरे गुणस्थान वाला होता है। 6. मिथ्यात्व - सम्यक्त्व के साथ मिथ्यात्व में स्थित जीवों की भी मार्गणा आवश्यक है। मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से तत्त्वार्थ में अरुचि होना /अश्रद्धान होना मिथ्यात्व है। इसके कई प्रकार के भेद मिलते हैं - 1. निसर्गज मिथ्यात्व (अनादि अगृहीत मिथ्यात्व) और परोपदेशिक मिथ्यात्व (गृहीत सादि मिथ्यात्व)। 2. एकान्त विपरीत, संशय, विनय और अज्ञान मिथ्यात्व के पाँच भेद हैं। मिथ्यादृष्टि जीव भगवान् की पूजा, जाप, स्वाध्याय आदि करने पर भी धर्मध्यानी नहीं है क्योंकि सम्यग्दृष्टि हुये विना धर्मध्यान सम्भव नहीं है। मिथ्यादृष्टि की पूजा आदि धार्मिक क्रियायें प्रशस्त आर्तध्यान हैं जो पुण्यवर्धक तथा पूर्वोपार्जित पापनाशक हैं परन्तु संवर में कारण नहीं हैं। मिथ्यादृष्टि का प्रथम गुणस्थान होता है। (13) संज्ञी मार्गणा नोइन्द्रिय( मन) आवरण कर्म के क्षयोपशम से जन्य ज्ञान का नाम संज्ञा है उससे जो युक्त हो वह संज्ञी है। असंज्ञी को मात्र इन्द्रियजन्य बाह्यपदार्थों का ज्ञान होता है। संज्ञी को समनस्क/ मनसहित/सैनी कहते हैं तथा असंज्ञी को अमनस्क / असंज्ञी कहते हैं। जो जीव मन के अवलम्बन से शिक्षा, इच्छापूर्वक हाथ पैर आदि चलाने की क्रिया, उपदेश ग्रहण, आलाप (वार्तालाप, श्लोकपाठ आदि) ग्रहण करता है तथा कर्तव्य -अकर्तव्य का विचार करता है वह संज्ञी है, शेष असंज्ञी हैं। संज्ञी जीव को संज्ञी नामक जातिनामकर्म का उदय रहता है तथा नोइन्द्रियावरण कर्म का क्षयोपशम रहता 375