________________ अन्यथा सयोग केवलियों के शुक्ल लेश्या सम्भव नहीं होगी कषायानरञ्जित होने पर लेश्या बन्ध चतुष्क (प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग बन्ध) में कारण बनती है। कषायाभाव वाले सयोगकेवलियों को योगनिमित्तक केवल प्रकृति और प्रदेश बन्ध होता है, स्थिति और अनुभागबन्ध नहीं, कषाय का अभाव होने से स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध के अभाव में वस्तुत: बन्ध निष्क्रिय या अकिञ्चित्कर है। लेश्या में योग की प्रधानता है और कषाय योगप्रवृत्ति में विशेषण है। 11वें गुणस्थान से केवल सातावेदनीय का बन्ध होता है। लेश्या के निम्न लक्षण मिलते हैं -(1) 'कषायानरञ्जितयोगप्रवृत्तिः'। यहां भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा क्षीणकषाय वालों को उपचार से शुक्ल लेश्या कही है।(2) जो आत्मा को पाप - पुण्यरूप कमों से लिप्त करे वह लेश्या है (3) मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग को भी लेश्या कहा है। लेश्या दो प्रकार की है-द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या। वर्ण नामकर्म के उदय के निमित्त से द्रव्यलेश्या (नामानुरूप शरीर का रंग) होती है। मोहनीय कर्मान्तर्गत कषाय के उदय, क्षयोपशम, उपशम या क्षय होने पर आत्मप्रदेश परिस्पन्दरूप योग भावलेश्या है। दोनों प्रकार की लेश्यायें 6-6 प्रकार की हैं उनके नामादि निम्न प्रकार हैं - المانها क्रम नाम कषायनुभाग | वर्ण / दृष्टान्त फल h. कृष्णलेश्या / तीव्रतम भ्रमरवत् / जड़मूल से वृक्ष काटना निर्दयी, क्रोधी, रौद्र, चोर | नीललेश्या / तीव्रतर नीमवत् / स्कन्ध काटना बुद्धिविहीन, मानी, आलसी कापोतलेश्या तीव्र कबूतरवत् / शाखायें काटना रुष्ट होना, स्वप्रशंसक, परनिंदक 4. पीत (तेज) | मन्द कुङ्कमवत् | उपशाखायें काटना सरल,विवेकी,दयालु, दानी, समदर्शी | पद्मलेश्या / मन्दतर पद्मपुष्पवत् / फल तोड़ना भद्र, त्यागी, गुरुपूजक, धैर्यवान् b. | शुक्ललेश्या | मन्दतम हंसवत् / गिरे हुए फल लेना / | पक्षपातरहित, निदानरहित, वीतरागी / (11) भव्य मार्गणार जो जीव आगामी काल में सिद्धत्व प्राप्ति की योग्यता रखते हैं वे भव्य हैं तथा जिनमें ऐसी योग्यता नहीं है वे अभव्य हैं। भव्य दो प्रकार के हैं - 1 भव्यसिद्ध - जो नियम से आगामी काल में सिद्धत्व (मुक्ति) को प्राप्त करेंगे। ये भी दो प्रकार के हैं - आसन्न भव्य और दूर भव्य। 2 जो आगामी काल में सिद्धत्व प्राप्ति की योग्यता रहने पर भी कभी भी सिद्धत्व को प्राप्त नहीं करेंगे वे अभव्यसम भव्य या अभव्यसिद्ध हैं। अभव्यसम भव्य जीव अभव्य नहीं हैं क्योंकि उनमें सिद्धत्वप्राप्ति की योग्यता होने पर भी अनन्तचतुष्टयप्राप्ति रूप सिद्धत्व प्राप्ति के निमित्त का अभाव रहता है, जैसे ठर्रा मूंग में अंकुरित होने की योग्यता होने पर भी अंकुरित नहीं होती अथवा जैसे पतिव्रता विधवा स्त्री सन्तान पैदा करने की योग्यता होने पर भी परपुरुष संसर्गाभाव होने से कभी भी सन्तान पैदा नहीं कर पाती। अत: इन्हें पूर्णतः अभव्य नहीं कहा जा सकता। अभव्य जीव वे है जो वन्ध्या स्त्री की तरह पुरुष संसर्ग मिलने पर भी सन्तान पैदा नहीं कर पाती है। निश्चय नय की दृष्टि से तो सभी में शक्ति है। अयोगकेवली के अन्तिम समय में भव्यत्व भाव का भी अभाव हो जाता है। अत: सिद्ध हो जाने पर भव्यत्व और अभव्यत्व दोनों से रहित होते हैं। भव्यत्व और अभव्यत्व का व्यवहार संसारियों के ही होता है, सिद्धों के नहीं जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव दर्शनमेहनीय कर्म के उदय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है और उसी कर्म के उपशम, क्षय, क्षयोपशम होने पर पुनः सम्यग्दृष्टि हो जाता है। उसी प्रकार भव्य का अभव्य में और अभव्य का भव्य में परिवर्तन नहीं हो सकता क्योंकि ये भाव कर्म के उपशम, क्षय, क्षयोमशम जन्य नहीं हैं। ये पारिणामिक भाव (स्वाभाविक भाव) हैं, जीव के। जैसे अग्नि की उष्णता उसका स्वाभाविक भाव है। जीव का पारिणामिक भाव होने पर भी यह कार्यसिद्धि के बाद (सिद्धत्व प्राप्ति के बाद) नहीं रहते। (12) सम्यक्त्व मार्गणा सच्चे देव, शास्त्र और गुरु पर श्रद्धान करना सम्यक्त्व है जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पञ्चास्तिकाय,नव पदार्थों का उनकी आज्ञा से या अधिगम से श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। जब यह परोपदेशपूर्वक होता है तो इसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं और जब विना परोपदेश के स्वत: होता है तो इसे निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं। सम्यक्त्व की दृष्टि से जीवों को पहचानना सम्यक्त्व मार्गणा है। यह 6 प्रकार से सम्भव है - 374