________________ है। एकेन्द्रिय से चतुरेन्द्रिय तक के सभी जीव (तिर्यच) असंज्ञी होते हैं और शेष संज्ञी होते हैं परन्तु उनमें निर्वृत्तिअपर्याप्तक पञ्चेन्द्रिय जीव की मन संज्ञा पूर्ण नहीं हो पाती और वे मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। तेरहवें चौदहवें गुणस्थान के जीव तथा गुणस्थानातीत सिद्ध संज्ञी-असंज्ञीपने से रहित होते हैं। मन दो प्रकार का होता है-द्रव्यमन और भावमन। द्रव्यमन पुद्गलविपाकी अङ्गोपाङ्गनामकर्म के उदय से होता है। वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से जो आत्मविशुद्धि होती है वह भावमन है। संज्ञी जीव जब 11वें गुणस्थान से गिरते हैं तो उनके क्रमशः परिग्रहादि संज्ञायें (संज्ञाओं के अन्य प्रकार - परिग्रह, मैथुन, भय तथा आहार हैं) उत्पन्न हो जाती हैं। यदि भवक्षय के कारण गिरते हैं तो एक साथ चारों संज्ञायें उत्पन्न हो जाती हैं। (14) आहार मार्गणा आहारवर्गणाओं से तीन प्रकार के शरीर बनते हैं-औदारिक, वैक्रियिक और आहारक। इन तीन शरीरों और इनसे संबन्धित 6 पर्याप्तियों (आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास ,भाषा और मन) के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करना आहार है अर्थात् शरीर नामकर्म के उदय से औदारिक आदि तीन शरीरों में से यथासम्भव किसी शरीर के योग्य पुद्गल वर्गणाओं का तथा वचन (भाषा) व द्रव्यमन के योग्य वर्गणाओं का जो ग्रहण होता है उसे आहार कहते हैं। आहारक और अनाहारक स्थानों में जीवों का अन्वेषण करना आहारमार्गणा है। यहां नोकर्माहार की अपेक्षा से आहारकपना समझना, कवलाहार आदि नहीं। अत; जो नोकर्माहार को ग्रहण करता है वह आहारक है और जो नोकर्माहार ग्रहण नहीं करता है वह अनाहारक है। आहार के 6 प्रकार हैं - 1. कवलाहार -जो कवल या ग्रास रूप से मुख द्वारा खाया जाता है वह कवलाहार है। यह मनुष्यों और द्वीन्द्रियादि तिर्यचों में पाया जाता है। केवली कवलाहार नहीं करते हैं ऐसी दिगम्बर मान्यता है। 2. लेपाहार -जो तेल आदि के लेपरूप में ग्रहण किया जाता है वह लेपाहार है। यह मुख्यत वनस्पति आदि में होता है। 3. ऊष्माहार या ओजाहार -गर्मी देने रूप आहार। यह पक्षी आदि अपने अण्डे आदि को मुख्यतः भोजनरूप में देते हैं। 4. मानसिकाहार -जो मन में कल्पनामात्र से कंठ में अमृतरूप में होता है। यह देवों में पाया जाता है। 5. कर्माहार -जहां कर्मफल भोगने की मुख्यत: होती है, यह नारकियों में पाया जाता है। 6. नोकर्माहार -मात्र नोकर्मवर्गणाओं का ग्रहण, यह सयोगकेवली भगवान् का होता है। विग्रहगति में स्थित जीव अधिकतम तीन समय तक, प्रतर और लोकपूरण समुद्धात अवस्था को प्राप्त सयोगकेवली (केवली समुद्धात में आत्मा के प्रदेश क्रमश फैलते हैं और वापिस आते हैं। क्रमश: दण्ड, कपाट, प्रतर, लोकपूरण, प्रतर, कपाट, दण्ड , मूलशरीर प्रवेश। इनमें से प्रतर, लोकपूरण और पुन प्रतर इन तीन समयों तक), अयोगकेवली (पाँच ह्रस्वाक्षर उच्चारणकाल या अन्तर्मुहूर्तकाल तक) तथा सिद्ध भगवान् अनाहारक हैं, शेष सभी आहारक हैं। केवली समुद्धात के समय तीन समयों में जीव कार्मण काययोग में अनाहारक हैं तथा दण्ड, कपाट अवस्था में आहारक हो जाते हैं। चौदहवें गुणस्थान में पुन: अनाहारक हो जाते हैं। विग्रहगति में वे ही जीव अनाहारक होते हैं जो 1; 2; 4 गुणस्थानवर्ती होते हैं। विग्रह गति में ऋजुगति या इषुगति या मोडारहितगति वाले एक समय में ही नवीन शरीर धारण कर लेते हैं जिससे वे अनाहारक नहीं होते एक मोडावाली गति या पाणिमुक्तागति में एक समय तक अनाहारक रहते हैं। दो मोडेवालीगति या लांगलिका या हलवत्गति में दो समय तक तथा तीन मोडे वाली गति या गोमूत्रिकागति में तीन समय तक अनाहारक होते हैं। इस तरह इन चौदह मार्गणाओं के द्वारा जीवों की विभिन्न अवस्थाओं का ज्ञान किया जाता है। इससे हम अपने मोक्षमार्ग का रास्ता चुन सकते हैं। इसमें समस्त जैन सिद्धान्त का निचोड समाहित है। इनका यहां पर संक्षिप्त विवेचन ही किया गया है, विशेष के लिये गोम्मटसार,धवला आदि ग्रन्थों का अवलोकन करना होगा। पादटिप्पण 1. गइ-इंदियेसु काये जोगे वेदे कसाय-णाणे य। संजम-दसण-लेस्सा भविया- सम्मत्त- सण्णि- आहारे / / गो0जी0142 2. गोजी0146 3. गोजी0164-165 4. गोजी0181 376