________________ आचार्य विद्यासागर : एक अनुशीलन आचार्य श्री 108 विद्यासागर का व्यक्तित्व और कृतित्त्व समुद्र सा विराट और गम्भीर है। उन्हें किन्हीं प्रशंसापरक विशेषणों से मंडित करने का अर्थ है सूर्य को दीपक दिखाना। वे तपश्चर्या और वीतरागता में जितने आगे हैं उतने ही कविता के माध्यम से जैनदर्शन के गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित करने में सक्षम हैं। अध्यात्म की ऊर्जा जितनी सबल है उतनी ही कवित्व प्रतिभा भी अनुपमेय है। उनका निष्परिगृही जीवन और निर्दोष विपुल कृतित्त्व इसका निदर्शन है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र की त्रिपुटी रूप रत्नत्रय की आभा आपके दर्शन मात्र से आबालवृद्ध को रोमाञ्चित करती है। मातृभाषा कन्नड होने पर तथा कक्षा नौ तक स्कूली शिक्षा होने पर भी आपकी हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, मराठी, अंग्रेजी आदि भाषाओं पर अप्रतिम पकड़ है। आपकी कृतियों पर शोधार्थी पी-एच.डी. डिग्री प्राप्त करते हैं। विनयशीलता, गुरुभक्ति, ज्ञानपिपासा, जितेन्द्रियता, सरलता, शुचिता, सत्यनिष्ठा, जिन-शासन-आस्था आदि अनेक गुण अहमहमिकया आपमें विराजमान हैं। भविष्यदर्शी आपके गुरु महाकवि श्री 108 ज्ञानसागर ने आपमें इन सब गुणों को जानकर ही बाल ब्रह्मचारी अवस्था में (22 वर्ष की अवस्था में) मुनिदीक्षा दी तथा स्व सल्लेखना काल में (चार वर्ष बाद ई. 22.11. 1972 को) अपना आचार्यपद देकर महाप्रयाण किया। विद्याधर से विद्यासागर बनकर आपने अनेक मुनिदीक्षायें देकर विशाल वटवृक्ष खड़ा किया है जिसकी छत्रछाया में बैठकर हम सभी अपना कल्याण कर रहे हैं। उनका एक ही लक्ष्य है चेतन निज को जानकर शिवाङ्गना को वरण करना। इसलिये आपने अपने भजनों के शीर्षक दिये - (1) मोक्ष-ललना को जिया कब वरेगा, (2) चेतन निज को जान जरा, (3) बनना चाहता है अगर शिवाङ्गना पति, (4) अब मैं मन-मन्दिर में रहूँगा, (5) परभव त्याग तू बन शीघ्र दिगम्बर आदि। काललब्धि और पुरुषार्थ के विषय में - समणसुत्तं का पद्यानुवाद करने के प्रसङ्ग में जो अपनी मनोभावना व्यक्त की है वह भाग्य और पुरुषार्थ का सम्यक् समन्वय करती है - 'काल-लब्धि के बिना कोई कार्य नहीं हो सकता और पुरुषार्थ से मुखमोड़कर काललब्धि की प्रतीक्षा करने से भी काललब्धि नहीं आ सकती है' इनपक्तियों के द्वारा आचार्यश्री ने स्पष्ट किया है कि भाग्य के भरोसे बैठे नहीं रहना चाहिए अपना पुरुषार्थ निरन्तर जारी रखना चाहिए क्योंकि बिना पुरुषार्थ के काललब्धि नहीं आती। काव्यरचना का उद्देश्य - जैनगीता लिखने के प्रसङ्ग में आपने अपने लिखने का प्रयोजन बतलाते हुए कहा है मन में बहुत काल से विचार करवटें ले रहा था कि एक ऐसा काव्यग्रन्थ का निर्माण किया जाए कि आबालवृद्ध उस ग्रन्थ को सङ्गीत के माध्यम से अल्पकाल में ही पढ़कर जैनदर्शन की उपयोगिता एवं ध्रुवबिन्दु के सम्बन्ध में परिचय प्राप्त कर सकें और जीवन को समुन्नत बना सकें। इसका सीधा अर्थ है कि काव्यरचना (जैनगीता) का उद्देश्य अपनी काव्यप्रतिभा का प्रदर्शन नहीं था अपितु जैनदर्शन के केन्द्रबिन्दु का आबालवृद्ध को सङ्गीत के माध्य से परिचय और उसकी उपयोगिता बतलाना रहा है। अहिंसा सूत्र के 151वें सूत्र में कितने सरल शब्दों में अहिंसा की आवश्यकता को बतलाया जो अन्य जीव वध है, वध ओ निजी है, भाई यह परदया, स्वदया रही है। साधू स्वकीय हित को जब चाहते हैं, वे सर्व जीव वध निश्चित त्यागते हैं। कितना सुन्दर कथन इस अहिंसा सूत्र में है कि परदया वास्तव में स्वदया है, दूसरे का वध आत्मवध है। अत: अपना हित चाहने वाले कभी भी हिंसा में प्रवृत्त नहीं होते। जैनगीता का अर्थ 'जैन गीता' शब्द का अर्थ जिनेन्द्र भगवान् की वाणी का सार' बतलाया है। 'जैन' शब्द जाति वाचक नहीं है 378