Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 393
________________ संयम, सूक्ष्मसांपराय संयम, और यथाख्यात संयम के भेद से पाँच प्रकार का संयम है। इनमें प्रथम दो संयम (सामायिक और छेदोपस्थापना) 6 से 9 गुणस्थानों में होते हैं। तीसरा परिहारविशुद्धि संयम 6-7गुणस्थानों में, चौथा सूक्ष्मसांपराय संयम 10 वें गुणस्थान में तथा पाँचवां यथाख्यात संयम 11-14 वें गुणस्थानों में होता है। परिहारविशुद्धि संयम 30 वर्ष की आयु के पूर्व नहीं होता है, यद्यपि 8वें आदि गुणस्थानों में परिहारविशुद्धि होती है परन्तु वहां परिहार (गमनागमन प्रवृत्ति के अभाव में शुभाशुभ क्रियाओं का परिहार) नहीं होता है। वे प्रायः मौन रहते हैं तथा यथाख्यात चारित्र वाले जीवों के परिणामों से कुछ ही न्यून परिणामी होते हैं। इनके उपशम सम्यक्त्व नहीं होता है। संयम मार्गणा में संयमासंयम और असंयम की दृष्टि से भी विचार किया जाता है। संयमासंयम 5वें गुणस्थानवर्ती श्रावक गृहस्थ का होता है ,असंयमी के प्रथम चार गुणस्थान होते हैं। (9) दर्शन मार्गणा आत्मा का स्वरूप उपयोग है। उपयोग दो प्रकार का है -दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग। ये दोनों आत्म-द्रव्य की स्वतन्त्र पर्यायें हैं और ये चैतन्य में ही सम्भव है। जैसे एक ही अग्नि में विषयभेद से दाहकता और पाचकता दोनों गुण हैं वैसे ही अभेदनय से चैतन्य के एक होने पर भी भेदनय की अपेक्षा जब वह आत्मा को ग्रहण करने में प्रवृत्त होता है तब उसका नाम दर्शन/ दर्शनोपयोग है और जब वह पर- पदार्थ (घटादि विषय) को ग्रहण करने में प्रवृत्त होता है तब उस चैतन्य का नाम ज्ञान/ ज्ञानोपयोग है। इस तरह चैतन्य ही विषयभेद से दो प्रकार का होता है। वस्तुतः आत्मोन्मुख उपयोग दर्शन है और विषयोन्मुख उपयोग ज्ञान है। स्थूल व्याख्यान की दृष्टि से आचार्यों ने बाह्यविषय में जो सामान्य (निराकार या विशेषरहित) का ग्रहण है वह दर्शन है तथा बाह्य विषय का जो विशेष जानना है वह ज्ञान है। सिद्धान्ततः प्रत्यक्षादि प्रमाण में अपने से भिन्न बहिर्भूत जो विषय प्रतिभासमान होता है वह 'आकार' है, ऐसा आकार जिस उपयोग में नहीं पाया जाता है वह उपयोग 'अनाकार' दर्शनोपयोग है। सकल पदार्थों के समुदाय से अलग होकर बुद्धि के विषयभाव को प्राप्त हुआ कर्मकारक घटादि 'आकार' कहलाता है। अर्थात् आत्मविषयक उपयोग दर्शन है। बाह्य और अन्तरङ्ग विषय वाले ज्ञान और दर्शन एकरूप नहीं हैं। ज्ञान-पर्याय भी दो शक्तियों वाली नहीं है क्योंकि पर्याय में स्वतन्त्र अवान्तर पर्याय का अभाव माना गया है अन्यथा पर्याय की पर्याय मानने पर उसे द्रव्य मानना पडेगा। वस्तुतः पदार्थ अपेक्षाभेद से सामान्य - विशेषात्मक है। सामान्य और विशेष पृथक् पृथक् नहीं हैं न्याय -वैशेषिकों की तरह, क्योंकि सामान्य से अनुबिद्ध ही विशेष की उपलब्धि होती है। दर्शन के चार भेद हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन / जो चक्षु इन्द्रिय के द्वारा प्रकाशित होता है वह चक्षुदर्शन है और जो शेष चार इन्द्रियों से प्रतिभाषित होता है वह अचक्षुदर्शन है। परमाणु से लेकर अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त मूर्त पदार्थों को प्रत्यक्ष देखना अवधिदर्शन है। अन्तरङ्ग आत्मा का उद्योत केवलदर्शन है। दर्शन में दर्शनावरण का और ज्ञान में ज्ञानावरण का क्षयोपशम/ क्षय निमित्त है। छद्मस्र्थों के ज्ञानोत्पत्ति में दर्शन भी निमित्त होता है क्योकि संसारी छद्मस्थ जीवों का दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग क्रमश: होता है। परन्तु अर्हन्तों, सिद्धों व केवलियों के दोनों उपयोग युगपत् होते हैं। जयधवला में कहा है - माणपज्जवणाणंतो णाणस्स य दंसणस्स य विसेसो। केवलियं व णाणं पुण णाणं त्ति दंसणं त्ति य समाणं / / पु.1, पृ.357-358 मनःपर्ययज्ञान पर्यन्त ज्ञान और दर्शन में भेद है परन्तु केवलज्ञान की अपेक्षा दर्शन और ज्ञान समान हैं। दर्शन का विषय आत्मा होने से दर्शन आत्मप्रमाण है। आत्मा ज्ञानप्रमाण है। ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है। ज्ञेय लोकालोकप्रमाण होने से ज्ञान सर्वगत है। ज्ञान के बराबर आत्मा होने से ज्ञान और दर्शन समान हैं। चक्षु और चक्षुदर्शन 1-12 वें गुणस्थान तक हैं। अवधिदर्शन 1 या 3 से 12 वें गुणस्थान तक है। केवल दर्शन 12 वें स्थान के बाद (13-14 व सिद्धों में) पाया जाता है। (10) लेश्या मार्गणा लेश्या का अर्थ कई तरह से किया जाता है। आत्मा और कर्म का संश्लेष सम्बन्ध कराने में लेश्या निमित्त होती है। मन, वचन और कार्य की प्रवृत्ति रूप योग के विना कर्म का आत्मा के साथ सम्बन्ध सम्भव नहीं है। यहां योगरूप प्रवृत्ति को कर्म का पर्यायवाची जानना कषायोदय से अनरञ्जित योगप्रवृत्ति का नाम है लेश्या। यहां ज्ञातव्य है कि केवल कषायोदय से लेश्या की उत्पत्ति नहीं मानी गई है अपितु शरीर नामकर्मोदय जन्य योग को भी लेश्या कहा है 373

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