________________ से सिद्धों में भी नहीं पाया जाता है। यह योग कर्म के आस्रव में कारण होता है, कर्मस्थिति और अनुभाग बन्ध कषाय के निमित्त से होता है। योग दो प्रकार का है - द्रव्य योग और भाव योग। पुद्गलविपाकी अङ्गोपांग नामकर्म और शरीरनामकर्म के उदय से मन, वचन व काय रूप से परिणत और मनोवर्गणा ,वचनवर्गणा व कायवर्गणा का अवलम्बन करने वाले संसारी जीव के लोकमात्र (सर्वत्र) प्रदेशों में रहने वाली जो शक्ति कर्मों को ग्रहण करने में कारण है वह भावयोग है भावयोगरूप शक्ति से सम्पन्न आत्मप्रदेशों में जो हलन चलन रूप परिस्पन्द होता है वह द्रव्ययोग है। योगमार्गणा में भावयोग का ग्रहण है, द्रव्ययोग का नहीं। योग औदयिकभाव है उसे उपचार से क्षायोपशमिक भी कहा जाता है। जीव के गमन मात्र को योग नहीं कहा जा सकता है अन्यथा सभी घाति और अघाति कर्मों का क्षय करने वाले अयोगकेवली का ऊर्ध्वगमन नहीं बन सकेगा। योगमार्गणा औदयिक है क्योंकि वह नामकर्म की उदीरणा व उदय से उत्पन्न होती है। योग के 15 भाग भी किये जाते हैं-4 मनोयोग (सत्य, मृषा, सत्यमृषा, असत्यमृषा ) 4 वचनयोग। (मनोयोगवत्) 7 काययोग (औदारिक, काययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिक - काययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग ,आहारक-काययोग, आहारकमिश्र-काययोग और कार्मण-काययोग)। (5) वेद मार्गणा वेदों में जीवों की खोज करना वेदमार्गणा है। वेद नाम कर्म के उदय से होने वाले भाव (चैतन्यरूप पर्यायमें मैथुनरूप चित्तविक्षेप) को वेद कहते हैं। वेद दो प्रकार का है - द्रव्यवेद और भाववेद। अङ्गोपांग नामकर्म के उदय से शरीर में जो योनि, लिङ्ग आदि की रचना होती है वह द्रव्यवेद है। वेदनोकषाय नामक मोहनीय कर्म के उदय से जीव का भाववेद होता है रमण की अभिलाषारूप आत्मपरिणाम भाववेद है। वेदनोकषाय नामक मोहनीयकर्मोदय तथा उदीरणा से जीव में पुरुष या स्त्री या दोनों से रमण करने का भाव होता है जिससे वह विवेकहीन होकर मोहित हो जाता है। द्रव्यवेद और भाववेद प्रायः सदृश ही होते हैं परन्तु कहीं कहीं विषम भी होते हैं। जैसे - द्रव्य से पुरुष वेदी है परन्तु भाव से स्त्रीवेदी या नपुंसकवेदी हो सकता है। वेदमार्गणा में भाववेद ग्रहण करना चाहिये क्योंकि नौवें गुणस्थान के बाद जीव अपगतवेदी होता है (सवेदभाग -छठे भाग के बाद) जबकि द्रव्यवेद चौदहवें गुणस्थान तक रहता है। सभी एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय (2-4),नारकी, सम्मूर्छन (पञ्चेन्द्रिय संज्ञी असंज्ञी भी) जीव नपुंसक वेदी ही होते हैं। देव,भोगभूमिया, असंख्यात वर्ष आयुवाले (भरत तथा ऐरावत क्षेत्र के भोगभूमि काल में उत्पन्न) तथा सर्व म्लेच्छ खण्डों में उत्पन्न मनुष्य व तिर्यच दो वेद वाले (स्त्री पुरुष वेद ) होते हैं, नपुंसकवेद वाले नहीं तथा इनमें द्रव्य भाव वेदगत वैषम्य नहीं पाया जाता है। शेष संज्ञी और असंज्ञी मनुष्य व तिर्यंच तीनों वेद वाले होते है। इनमें वेदविषमता भी सम्भव है। परिहारविशुद्धि संयमी, आहारक व आहारकमिश्रकाययोगी, मनःपर्ययज्ञानी, ऋद्धिधारी मुनिराज, तद्भवमोक्षगामी तथा 63 शलाकापुरुषों में नपुंसकवेद नहीं होता है। विग्रहगति में अनाहारक अवस्था में तीनों भाववेद होते हैं क्योंकि भाववेद वेद नोकषाय के उदय में होता है, अनाहारक अवस्था में वहां भौतिक शरीर न रहने पर भी कार्मणकाय योग रहता है और वेदनोकषाय का उदय रहता है। (6) कषायमार्गणा० क्रोधादिकषायों में या अकषाय में जीवों की खोज करना कषायमार्गणा है / 'कषन्तीति कषायाः' अर्थात् जो जीव के सम्यग्दर्शन, देशचारित्र, सकलचारित्र और यथाख्यातचारित्र गुण को घाते वह कषाय है। कषाय वस्तुतः मोहनीय कर्म का रूप है। मोहनीयकर्म आत्मा के श्रद्धा गुण और चारित्र गुण को घातता है। कषायें प्रथमतः चार प्रकार की हैं - 1. अनन्तानुबन्धी (यह सम्यग्दर्शन को प्रकट नहीं होने देती), 2. अप्रत्याख्यानावरण (यह देशविरति/देश संयम या देशचारित्र को प्रकट नहीं होने देती ), 3. प्रत्याख्यानावरण (यह सकलसंयम या महाव्रतरूप सकलचारित्र को प्रकट नहीं होने देती) और 4. संज्वलन (यह यथाख्यातचारित्र या विशुद्ध परिणामों को प्रकट नहीं होने देती)। ये चारों क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से चार प्रकार की हैं। इनमें नौ नोकषायों (ईषत् कषाय) - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद,पुरुषवेद और नपुंसकवेद को जोड़ देने से कषायों के 25 प्रकार हो जाते हैं। ग्यारह से चौदहवें गुणस्थान तक के जीव तथा सिद्ध ये सभी जीव कषायों से रहित होते हैं। यहां इतना विशेष है कि ग्यारहवें उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती जीव को पुनः कषायोदय हो जाता है, अन्य को नहीं। कषायों का वासनाकाल (कषायों का उदय न रहते हुये भी संस्कार रूप में जितने समय तक उनकी स्थिति बनी रहे, वह वासनाकाल होता है) 371