________________ मार्गणाओं द्वारा जीवों की स्थिति का ज्ञान जिनके द्वारा जीवों को खोजा जाता है उन्हें मार्गणा कहते हैं। कर्मों के बन्धनों से जकड़ा हुआ यह संसारी जीव किन किन रूपों में कहाँ कहाँ पाया जाता है इसी अन्वेषण का नाम है 'मार्गणा'। कर्म-शत्रुओं को जीतने वाला शुद्ध स्वरूपी आत्मा कर्म- मुक्त होकर 'जिन' कहलाता है। जिन की दो अवस्थायें होती हैं-1. अर्हन्तावस्था (जीवन्मुक्तावस्था) और 2. सिद्धावस्था (विदेहमुक्तावस्था या अशरीरी-अवस्था)। इन अवस्थाओं को प्राप्त करने के लिये जीव रत्नत्रयात्मक धर्मरूपीधनुष,चेतनागुणरूपी प्रत्यंचा (डोरी )तथा चौदह मार्गणाओं रूपी बाणों के द्वारा कर्म-शत्रुओं के राजा मोह को जीतता है। गति, इन्द्रिय आदि 14 मार्गणायें हैं। अन्वेषणा, गवेषणा, खोज और मार्गणा सब एकार्थक हैं। सत्, संख्या आदि अनुयोगों, चौदह गुणस्थानों तथा चौदह जीवसमासों (धर्म विशेषों) के द्वारा भी जीवों का अन्वेषण किया जाता है। नाम, स्थापना आदि निक्षेपों आदि के द्वारा भी जीवों को खोजा जाता है। उनमें मार्गणा विशेष रूप से रूढ है। लोक व्यवहार में पदार्थों के अन्वेषण में चार बातें देखी जाती हैं - 1. मृगयिता (अन्वेषण कर्ता), 2. मृग्य(अन्वेषणीय), 3. मार्गणा (अन्वेषण में सहायक कारण) तथा 4. मार्गणोपाय। यहां पर जीवादि पदार्थों पर श्रद्धान करने वाला भव्य जीव मृगयिता है। चौदह गुणस्थानों में स्थित या देव- गत्यादि में स्थित जीव मृग्य है, तत्-तत् स्थानों में स्थित जीवों के अन्वेषण में अत्यन्त सहायक कारण गति आदि। मार्गणायें हैं तथा गुरु-शिष्य, शास्त्र आदि मार्गणा के उपाय हैं। चौदह मार्गणायें तथा उनमें स्थित जीवों का संक्षिप्त विवरण निम्न है। -1. गति, 2. इन्द्रिय, 3. काय, 4. योग, 5. वेद, 6. कषाय, 7. ज्ञान, 8. संयम, 9. दर्शन, 10. लेष्या, 11. भव्यत्व, 12. सम्यक्त्व, 13.संज्ञा तथा 14. आहार। (1) गति मार्गणा गति नामकर्म के उदय से भवान्तर (अगला जन्म) में होने वाली जीव की पर्याय (अथवा मनुष्य, तिर्यंच, देव और नरक इन चार गतियों में गमन के कारण) को गति कहते हैं। इन गतियों में जन्म लेने वाले जीवों की खोज करने को गति मार्गणा कहते हैं। यह जीव जब तक मुक्त नहीं होता है तब तक चारों गतियों की 84 लाख योनियों में परिभ्रमण करता रहता है। मुक्त होने पर जीव को सिद्धगति या पञ्चम गति की प्राप्ति होती है जहाँ से पुनः संसार में आगमन नहीं होता है। वहाँ आत्मस्वरूप अनन्त ज्ञान सुखादि में लीन रहता है। (क) नरक गति - चित्रा पृथ्वी के नीचे सात नरक हैं। जहाँ जीव संज्ञी पञ्चेन्द्रय होते हैं, स्थावर और द्वीन्द्रियादि (24 इन्द्रिय वाले) नहीं होते हैं। इनके दाढ़ी मूंछ नहीं होती। शरीर वैक्रियिक होता है जिसे वे छोटा बड़ा आदि अनेक रूप कर लेते हैं। इनका शरीर बैडोल, कुरूप और दुर्गन्धमय होता है। अत्यधिक भूख-प्यास से व्याकुल रहते हैं। इनका शरीर कटने पर पुनः जुड़ जाते हैं जिससे अकालमृत्यु नहीं होती। अशुभलेश्या वाले बहुत आरम्भ-परिग्रह वाले पापी मिथ्यादृष्टि जीव नरकों में जन्म लेते हैं। नरक बद्धायुष्क वाले सम्यग्दृष्टि जीव भी नरक में जा सकते हैं। जघन्य आयु 10 हजार वर्ष और उत्कृष्ट आयु 33 सागर तक होती है। सातवें नरक के नीचे एक राजू का क्षेत्र निगोदिया जीवों का है इसे कलकल या आठवीं पृथ्वी कहते हैं परन्तु यहाँ कोई पृथ्वी नहीं है, खाली क्षेत्र है जहाँ निगोदिया जीव दो प्रकार के हैं नित्य निगोद (जो कभी बाहर नहीं निकलते) और इतर निगोद हैं। एक श्वास में लब्ध्यपर्याप्तक जीवों को 18 बार जन्ममरण होता रहता है। पर्याप्तकों का अन्तमुहूर्त काल है। यहाँ जीवों की संख्या अक्षय अनन्त है। आगमानुसार 6 मास 8 समय में 608 जीव मोक्ष जाते हैं और उस समय में उतने ही जीव निगोद से निकलकर तिर्यंचादि गतियों में आते हैं। (ख) तिर्यञ्च गति - एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रय तक के सभी जीव तिर्यञ्च गति वाले होते हैं। इस गति में संज्ञीअसंज्ञी दोनों प्रकार के पञ्चेन्द्रिय (जलचर, थलचर और नभचर पशु-पक्षी आदि) भी होते हैं। हाथी, घोड़ा, सिंह आदि में अणुव्रत पालन करने की योग्यता होती है परन्तु मनुष्यगति वालों से बहुत कम। इनका औदारिक शरीर होता है। अकाल मृत्यु सम्भव है। इनकी जघन्य आयु एक अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्य की हो सकती है। कर्मभूमि के तिर्यञ्चों की उत्कृष्ट आयु एक वर्ष कोटि तक सम्भव है। मायाचारी आदि करने से इस गति की प्राप्ति होती है। 368