________________ कल्पना मात्र है, मिथ्या है। आज भी हम देखते हैं कि धर्मान्ध व्यक्ति धर्म के नाम पर हिंसा करते हैं और उसे धर्म मानते हैं जो सर्वथा पापाचरण है। प्रामाणिक पुरुष द्वारा कथित प्रेरक वाक्य को सुनकर श्रोता की क्रिया में प्रवृत्ति होती है। वेद वाक्य उच्चारण मात्र से ही श्रोता को स्वयमेव यज्ञादि में प्रवृत्त कराता है। आपका यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि आचार्य के द्वारा प्रेरित होकर 'मैं यज्ञ में प्रवृत्त हो रहा हूँ'- ऐसा सर्वत्र देखा जाता है केवल वचन सुनकर नहीं। यज्ञ ही धर्म है जो विधिवाक्यों से वाच्य है। आपका यह भी कथन ठीक नहीं है क्योंकि जैन-बौद्ध आदि अग्निहोत्र यज्ञों को धर्म न मानकर अधर्म ही मानते हैं क्योंकि उसमें हिंसा होती है। वेद वाक्य संशय-रहित भी नहीं हैं। यज्ञ के सन्दर्भ में जहाँ निषेध का विवेचन किया गया है वहाँ आया है 'नाति रात्रे षोडशिनं गृह्णाति, अतिरात्रे षोडशिनं गृह्णाति" इस तरह सिद्ध होता है कि न तो शब्द नित्य हैं और न वे अपौरुषेय ही हैं। वेदों में हिंसादि का प्रतिपादन होने से उनमें विहित वेद-वाक्यों को धर्म नहीं माना जा सकता है। वेदों की रचना जब तक किसी सर्वज्ञ द्वारा अथवा किसी प्रामाणिक पुरुष द्वारा नहीं मानी जाएगी तब तक उसमें प्रामाणिकता सिद्ध नहीं हो सकेगी। अपौरुषेय कह देने मात्र से वेदों की अपौरुषेयता सिद्ध नहीं होती है। विधि वाक्य चूँकि कार्य हैं, अत: वे अनित्य हैं और उनका कोई न कोई कर्ता अवश्य है, जैसे, लौकिक वाक्य। सन्दर्भ सूची 1. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, कारिका 9 2. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पृ062 3. वही, पृ0 63 4. वही, पृ061 5. वही, पृ065 6. वही, पृ0 66 7. अर्थसंग्रह, लौगाक्षिभास्कर, निषेध प्रकरण, मेरा लेख 'मीमांसा में निषेध मीमांसा'। 8. विस्तार के लिए देखें 'न्यायकुमुदचन्द्र', पृ0 721, 'प्रमेयकमलमार्तण्ड', पृ0 391-403, 'जैनन्याय', पृ0 260-266, मीमांसकों के पूर्वपक्ष हेतु देखें 'शाबरभाष्य' 1.1.5, 'बृहती' पृ0 177, 'मीमांसाश्लोक 366 आदि। गुरु पं. जगन्मोहन लाल जी शास्त्री को शत शत वन्दन मेरे गुरुदेव जिन्होंने मुझ जैसे पाषाण को तराशकर सिद्ध-सारस्वत बना दिया - (1) नाम में विरोधाभास - 'जगन्मोहन' शब्द के चार अर्थ सम्भव हैं-(1) जो जगत् को मोहित करे (जगति यः स्वाकर्षकगुणादिभिः शरीरादिभिर्वा मोहयतीति जगन्मोहनः)। (2) संसार में कामदेव के समान मोहन स्वभावी (ज्रगति मोहनवत् कामवत् मोहनः जगन्मोहनः)। (3) जिसे जगत से मोह नहीं है, ऐसा वीतरागी (जगति मोहो नास्ति यस्य सः जगन्मोहन:)। (4) जगत् के प्राणियों के लिए शिवस्वरूप कल्याणकारी (जगति मोहनः शिवः कल्याणकर: एतन्नामको देवो वा जगन्मोहनः)। इन चार शब्द-व्युत्पत्तियों में से प्रथम दो उनके सरागीपने को सूचित करती हैं जबकि अन्तिम दो उनके वीतरागभाव को प्रकाशित करती हैं। वस्तुतः अपेक्षा भेद (नय भेद) से वे बाहर से सरागी (गृहस्थ) और अन्दर से वीतरागी (साधक) हैं। हिन्दू पुराणों में एक कथा आती है। जब समुद्र-मन्थन से अमृत निकला, तो उसे पाने के लिए देव और राक्षस दोनों में छीना-झपटी होने लगी। तब भगवान् विष्णु ने राक्षसों को ठगने के लिए 'मोहनी' का रूप धारण करके अमृत को राक्षसों से बचाकर देवों को दिया था। इसी तरह पं0 जगन्मोहन ने राक्षसरूपी कर्मशत्रुओं को ठगने के लिए अपना जगन्मोहन रूप बनाकर उन्हें ठगा और अपनी देव-तुल्य ज्ञान चेतना को जागृत किया। (2) कार्य क्षेत्र में विरोधाभास -जिस प्रकार नाम में विरोधाभास दिखता है, उसी प्रकार कार्य क्षेत्र में भी विरोधाभास दिखता है / जैसे-प्रकाश नहीं परन्तु समाज के प्रकाशस्तम्भ हैं, त्रिशलानन्दन (भगवान् महावीर) नहीं, परन्तु त्रिशलानन्दन-पथानुगामी हैं, मृग नहीं, परन्तु कस्तूरी (प्रथम पत्नी का नाम, जिनसे सन् 1922 में विवाह हुआ था) 366