Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 384
________________ सम्पादक ने जिनशब्दों को अपनी ओर से रखा है उसे [ ] ऐसे ब्रेक्रिटके द्वारा प्रदर्शित किया है। 7-इसके सम्पादन में ईडर भण्डार की (आ0 संज्ञक) प्रति को आदर्श माना गया है। शेष अन्य चार प्रतियों का यथास्थान उपयोग किया गया है। विवृत्ति की पूर्णता आ0 प्रति के अतिरिक्त जयपुर की प्रति से की गई है। _इस तरह न्यायाचार्य पं0 महेन्द्र कुमार जी का यह प्रथम सम्पादन कार्य इतना महत्त्वपूर्ण और आदर्शदीपक हुआ कि कालान्तर में इन्हें प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि ग्रन्थों के सम्पादन का उत्तरदायित्व सौंपा गया जिसे इन्होंने उसी लगन और ईमानदारी से पूर्ण किया। न्यायकुमुदचन्द्र का इन पर इतना प्रभाव था कि इन्होंने इसके सम्पादन काल में उत्पन्न ज्येष्ठ पुत्र का नाम स्मृतिनिमित्त 'कुमुदचन्द्र' रखा जो काल की गति का निशाना बन गया और सम्पादित यह ग्रन्थ ही उसका पुण्यस्मारक बना जिसे पं0 जी ने अपने साहित्य यज्ञ की आहुति माना। ऐसे स्वनामधन्य पं0 महेन्द्रकुमार जी की प्रतिभा जो प्रभाचन्द्राचार्यवत् थी को शतशत वन्दन करते हुए उनके द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चलने की कामना करता हूँ। वेद के अपौरूषेयवादत्व की समीक्षा महर्षि विद्यानन्द (ई0 सन् 775-840) विरचित तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालङ्कार में कहा है - सूक्ष्माद्यर्थोपदेशो हि तत्साक्षात्कर्तृपूर्वकः। परोपदेशलिङ्गाक्षानप्रेक्षावितथतत्वतः।। 1 / / अर्थात् परोपदेश, इन्द्रियादि लिङ्ग की अपेक्षा न रखते हुए सर्वज्ञ का सूक्ष्मादि पदार्थों का उपदेश प्रामाणिक है तथा उनके उपदेश के अनुसार कथित आगम वचन भी प्रामाणिक हैं। इस श्लोक में समागत 'सर्वज्ञ का उपदेश परोपदेश निरपेक्ष होता है इस विशेषण पर आपत्ति करते हुए मीमांसकों का कहना है कि धर्मोपदेश सदा परोपदेशपूर्वक ही होता है तथा धर्मोपदेश में चोदना (वेद का प्रेरक विधि वाक्य) ही प्रमाण है, अन्य नहीं / वेद किसी पुरुष अथवा ईश्वर की रचना न होने से अपौरुषेय हैं। इस सन्दर्भ में मीमांसकों का कहना है कि अपौरुषेय वेद वाक्यों को सुनकर श्रोता समझता है कि मैं वेद विहित वाक्यों से प्रेरित होकर यागादि धार्मिक क्रिया कर रहा हूँ इसमें किसी पुरुष विशेष या आचार्य की प्रेरणा कारण नहीं है, जिसकी सत्यता के लिए उपक्रम किया जाए। 'वेद वाक्य स्वतः प्रमाण हैं अतः उनकी सत्यता प्रमाणित करने के लिए किसी प्रमाणान्तकी अपेक्षा नहीं होती है परन्तु लौकिक वाक्यों में प्रवृत्ति कराने में पुरुष की प्रेरणा कारण होती है और वहाँ प्रेरक की प्रमाणता हेतु उसके गुणों को देखा जाता है। लौकिक और वैदिक वचनों के उपदेश में यही अन्तर है। जैनों का कहना है कि प्रयत्न के बिना वचनों में प्रवृत्ति नहीं होती है क्योंकि पदार्थों को बतलाने वाले वचनों की उत्पत्ति सदैव पुरुष-व्यापार से होती है। इसके उत्तर में मीमांसकों का कहना है कि लौकिक शब्द भले ही पौरुषेय हों परन्तु वैदिक शब्द सदा ही अपौरुषेय और नित्य हैं। इस विषय को समझने के लिए आवश्यक है कि हम पहले मीमांसकों के उन सिद्धान्तों पर दृष्टि डालें जिनके कारण वे वेदों को अपौरुषेय कहते हैं - 1. मीमांसा दर्शन में न्याय-वैशेषिकों की तरह सृष्टिकर्ता अनादि किसी सर्वज्ञ ईश्वर (महेश्वर) की सत्ता को स्वीकार नहीं किया गया है। इसलिए वेदों की प्रामाणिकता को ईश्वर रचित कहकर सिद्ध नहीं कर सकते हैं। अतः उन वेदवाक्यों की सत्यता (प्रामाणिकता) सिद्ध करने के लिए वेदों को अपौरुषेय मानना पड़ता है। 2. जैनों की तरह वे किसी पुरुष विशेष को भी सर्वज्ञ स्वीकार नहीं करते। अत: सर्वज्ञप्रणीत भी वेदों को नहीं कह सकते। वे किसी को सर्वज्ञ नहीं मानते, सर्वज्ञता का खण्डन करते हैं। 3. मीमांसक शब्द और अर्थ का नित्य सम्बन्ध स्वीकार करते हैं और वर्ण, पद आदि को नित्य मानते हैं, अनित्य नहीं। स्फोटवादी वैयाकरण भी शब्द को नित्य और व्यापक मानते हैं परन्तु जैन शब्द को अनित्य स्वीकार करते हैं क्योंकि वे ताल्वादि प्रयत्नजन्य (कार्य) हैं। शब्द कार्य हैं क्योंकि ताल्वादि कारणों के होने पर उत्पन्न होते हैं और कारणों के अभाव में उत्पन्न नहीं होते हैं। जिस प्रकार क,ख,ग आदि वर्ण पुरुष प्रयत्न जन्य हैं उसी प्रकार वर्णो के समुदाय रूप पद तथा पदों के समुदाय रूप वाक्य भी जन्य हैं। 4. शब्द का विषय समान्य मात्र है, जैनों की तरह सामान्य-विशेषरूप वस्तु नहीं। शब्द का विषय यदि केवल सामान्य को माना जायेगा तो व्यक्ति विशेष का बोध कैसे होगा? इस प्रश्न के उत्तर में मीमांसकों का कहना है कि सामान्य व्यक्ति विशेष के बिना नहीं रहता, अत: सामान्य से लक्षित व्यक्ति विशेष की प्रतीति लक्षित-लक्षणा से होती है। जैनों का कहना 364

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