________________ महाविद्यालय, काशी में जैन न्याय के अध्यापक थे, ने पं0 सुखलाल सङ्कवी द्वारा संपादित सन्मतितर्क की शैली में न्यायकुमुदचन्द्र का सम्पादन प्रारम्भ किया। यह पं0 महेन्द्रकुमारजी का इस क्षेत्र में प्रथम प्रयास था। इसके सम्पादन में पं० सुखलाल सङ्घवी और पं0 कैलाशचन्द्र जी का बहुमूल्य सहयोग रहा है। सम्पादनोपयोगी साहित्योपलब्धि कराने में पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी का औदार्य पूर्ण सहयोग मिला। इसके सम्पादन में पाँच प्रमुख प्रतियों से सहायता ली गई थी और उन प्रतियों के आधार पर जो या तो अशुद्ध थीं या अधूरी थीं, प्रस्तुत संस्करण का सम्पादन कितना कठिन कार्य है, यह अनुभवी सम्पादक ही समझ सकता है। सम्पादन करते समय जिन-जिन बातों का ध्यान रखना चाहिए उन सभी का ध्यान रखा गया है। प्रस्तुत संस्करण माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई से ई0 सन् 1938 तथा 1941 में क्रमश: दो भागों में प्रकाशित हुआ है। छपाई में मूलपाठ, विवृत्ति, व्याख्यान, टिप्पण, पाठान्तर, विरामचिह्नों आदि का समुचित प्रयोग किया गया है। विषय की सुबोधता तथा शोधार्थियों के उपयोग के लिए द्वितीय भाग में निम्न 12 परिशिष्ट दिए गए हैं (1) लघीयस्त्रय-कारिकानुक्रमणिका, (2) लघीयस्त्रय और उसकी स्वविवृति में आगत अवतरणवाक्यों की सूची, (3) लघीयस्त्रय और स्वविवृति के विशेष शब्दों की सूची, (4) अन्य आचार्यों द्वारा उद्धृत लघीयस्त्रय कारिकायें एवं विवृति अंशों की तुलना, (5) न्यायकुमुदचन्द्र में उद्धृत ग्रन्थान्तरों के अवतरण, (6) न्यायकुमुदचन्द्र में निर्दिष्ट न्यायवाक्य, (7) न्यायकुमुदचन्द्र में आगत ऐतिहासिक और भौगोलिक नामों की सूची, (8) न्यायकुमुदचन्द्र में उल्लिखित ग्रन्थ और ग्रन्थकारों की सूची, (9) न्यायकुमुदचन्द्रान्तर्गत लाक्षणिक शब्दों की सूची, (10) न्यायकुमुदचन्द्रान्तर्गत कुछ विशिष्ट शब्द, (11) न्यायकुमुदचन्द्रान्तर्गत दार्शनिक शब्दों की सूची, (12) मूल ग्रन्थ तथा टिप्पणीमें प्रयुक्त ग्रन्थ सङ्केत सूची (पृष्ठ सङ्केत के साथ)। पं0 महेन्द्रकुमारजीका वैदुष्य पं0 महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य जिन्होंने न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड, अकलङ्क ग्रन्थत्रय आदि महत्त्वपूर्ण एवं गम्भीर ग्रन्थों का सटिप्पण सुन्दर सम्पादन किया है, उनकी बराबरी का आज दूसरा कोई सम्पादक नहीं दिखलाई पड़ रहा है। आप जैनविद्या के प्रकाण्ड मनीषी तो थे ही, साथ ही जैनेतर न्यायशास्त्र में भी गहरी पैठ थी। न्यायकुमुदचन्द्र के टिप्पण तथा द्वितीय भागकी 63 पृष्ठों की विस्तृत प्रस्तावना आपके वैदुष्यको प्रकट करती है। प्रथम भाग की 126 पृष्ठों की प्रस्तावना पं0 कैलाशचन्द्रजी शास्त्री द्वारा लिखित है / इसके बाद भी आपने द्वितीय भाग में प्रभाचन्द्रकी वैदिक और अवैदिक इतर आचार्यों से तुलना करते हुए अभिनव तथ्यों को प्रकट करने वाली प्रस्तावना लिखी है। ग्रन्थ सङ्केत सूची, शुद्धिपत्रक आदि के साथ विस्तृत विषयसूची दोनों भागों में दी गई है जिससे विषय की दुर्बोधता समाप्त हो गई है। सम्पादन की प्रमुख विशेषताएँ पं0 महेन्द्रकुमार जी के वैदुष्य को तथा सम्पादन कला की वैज्ञानिकता को प्रकट करनेवाली प्रस्तुत न्यायकुमुदचन्द्र के संस्करण को प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं - 1-आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति से सम्पादन किया गया है। ग्रन्थसङ्केतसूची, विस्तृत विषयसूची, परिशिष्ट, प्रस्तावना, शुद्धिपत्रक, सहायक ग्रन्थसूची, विराम चिह्नों का समुचित प्रयोग, टिप्पण, पाठान्तर, तुलना आदि सभी सुव्यवस्थित और प्रामाणिक हैं। 2-द्वितीय भागकी प्रस्तावना सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है जिसमें सम्पादकने अथक श्रम किया है। ऐतिहासिकता के बीजों को उद्घाटित करते हुए तुलनात्मक दृष्टि अपनाई गई है। विषय विवेचनमें सङ्कीर्णता नहीं अपनाई गई है। 3- कुछ टिप्पणियाँ ग्रन्थकार के आशय को स्पष्ट करने के लिए तथा कुछ पाठशुद्धि के लिए भी दी गई हैं। 4-प्रत्येक विषय के अन्तमें पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष सम्बम्धी ग्रन्थों की विस्तृत सूची दी गई है जिससे उस विषय के पर्यालोचन में और अधिक सहायता मिलती है। 5-प्रस्तावना में आचार्य अकलङ्क और प्रभाचन्द्र के सम्बन्ध में ज्ञातव्य अनेक ऐतिहासिक और दार्शनिक मन्तव्यों का विवेचन किया गया है। प्रसङ्गत: जैन एवं जैनेतर ग्रन्थकारों की तुलना करते हुए बहुत-सी बातों के रहस्य खोले गए हैं। इसे यदि जैनतर्क युग के इतिहास की रूपरेखा कही जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। अतः ऐतिहासिकों के लिए यह प्रस्तावना बहुत उपयोगी है। 6-जो पाठ अशुद्ध थे उनको सुधारने का प्रयत्न किया गया है। सम्पादक ने इस बात को इंगित करने के लिए उस कल्पित शुद्ध पाठ को ( ) ऐसे ब्रेकिट में दिया है। इसके अतिरिक्त जो शब्द मूल में त्रुटित थे या नहीं थे उनकी जगह 363