________________ प्रायः कवियों ने हेमन्त और शिशिर ऋतु दोनों का समावेश शीत ऋतु में करके एक सा वर्णन किया है। यहाँ एक स्थान पर शिशिर ऋतु को वसन्त का शैशवकाल बतलाया है - अयि लवङ्गि! भवत्यपि राजते विकलिते शिशिरेऽपि च शैशवे / अतिशयोन्नतिमत्स्तवकस्तनी भ्रमरसङ्गवशान्मदनस्तवे। 6.32 अर्थ- अयि लवङ्गलते ! तुम सौभाग्यवती हो क्योंकि तुम्हारा शिशिरकाल रूप शैशवकाल बीत चुका है और अब नव यौवनावस्था में पुष्पों के गुच्छों रूपी उन्नत स्तनों से युक्त हो गई हो। भौंरों के सम्पर्क से काम-प्रस्ताव को प्राप्त हो रही हो। शिशिरोचितप्रियाः स्त्रियाः (9.20) कहकर शीत ऋतु का ही वर्णन किया है। अन्यत्र एक स्थान पर शिशिरवायु का भी उल्लेख किया है (9.23) / भारतीय संवत्सर के अनुसार मार्गशीर्ष और पौषमास में जब सूर्य वृश्चिक और धनु राशि में रहता है तब हेमन्त ऋतु होती है। माघ और फाल्गुन मास में जब सूर्य मकर और कुम्भ राशि में होता है तब शिशिर ऋतु मानी जाती है। वीरोदय काव्य में शीत ऋतु के आगमन का कारण भगवान् महावीर के द्वारा लोगों की जड़ता दूर करने के लिए किया गया क्रोध युक्त उपक्रम है (9.18) / / कन्या राशिस्थ सूर्य जब हेमन्त ऋतु में धनुराशिस्थ हो जाता है तो वह कर्ण राजा (कन्या कुन्ती से उत्पन्न और धनुर्विद्या पारङ्गत) के समान पराक्रमी होकर योगियों को भी कँपा देने वाला हो जाता है - कन्याप्रसूतस्य धनुःप्रसङ्गतस्त्वनन्यमेवातिशयं प्रविभ्रतः। शीतस्य पश्यामि पराक्रमं जिन श्रीकर्णवत्कम्पकरं च योगिनः।। 9.19 सूर्य के धनु:राशिस्थ होने पर दूसरी उत्प्रेक्षा देखिए - रविर्धनुः प्राप्य जनीमनांसि किल प्रहर्तुं विलसत्तमांसि। स्मरो हिमैर्व्यस्तशरप्रवृत्तिस्तस्यासको किङ्करतां बिभर्ति // 9.28 अर्थ - हिमपात से अस्तव्यस्त शर सञ्चालन वाले कामदेव की सहायतार्थ ही मानो सूर्य धनुष लेकर (धनु राशि पर)। उसकी किङ्करता (सेवकपने) को प्राप्त हुआ है। दिन छोटे और रात्रियाँ बड़ी क्यों होती हैं ? इस हेमन्त ऋतु में रात्रि रूपा श्यामा स्त्री की शीत-पीड़ा को देखकर यह दिन(सूर्य) उसे प्रीतिवश अधिक अम्बर (वस्त्र, समय) दे देता है। अथवा शीत से आतुर हुआ यह सूर्य रात्रि में अपनी सुन्दर स्त्री के गाढ़ आलिङ्गन में सो जाता है, जिससे वह प्रात: आलस्य के कारण शीघ्र नहीं उठ पाता है। श्यामास्ति शीताकुलितेति मत्वा प्रीत्याम्बरं वासर एष दत्त्वा। किलाधिकं सङ्कुचितः स्वयन्तु तस्यै पुनस्तिष्ठति कीर्तितन्तु॥9.29 शीतातुरोऽसौ तरणिर्निशायामालिङ्ग्य गाढं दयितां सुगात्रीम्। शेते समुत्थातुमथालसाङ्गस्ततस्स्वतो गौरवमेति रात्रिः॥9.22 इसी प्रकार अन्य विविध उत्प्रेक्षाओं, उपमाओं आदि के द्वारा इस शीत ऋतु (हेमन्त और शिशिर) का कवि ने चित्रण किया है। जैसे - शीत में दरिद्र पुरुष की स्थिति (9.25), वानरों की स्थिति (9.27), वृक्षों की शोभा का विनाश (9.22), हिमपात होना (9.21), प्रियाविहीन की मरणवत् स्थिति (9.35), प्रियाविहीन पुरुष के लिए तो रात्रियाँ साक्षात् यमयामिनी हैं (9.40), स्त्रियों की कन्दुक क्रीड़ा (9.36-38), ताराततिवत् कुन्दपुष्पों का विकास (9.42), पक्षियों का सञ्चार बन्द होना और शीत वायु का सञ्चार होना (9.35), ठिठुरन का बढ़ना और दाँतो का किटकिटाना (9.43), हिरण के द्वारा पास में पड़ी हुई घास को उठाकर नहीं खा पाना, सम्मुख आते हुए हाथी पर आक्रमण करने में सिंह का असमर्थ होना, ब्राह्मणों के सन्ध्यावन्दन हेतु हाथों का न उठना आदि (9.45) जलाशयों के ऊपर बर्फ की पर्त जम जाने से वह ऐसी लगती है मानो उसने शीत से बचने के लिए चादर ओढली हो (9.41) / इस शीत ऋतु में वे ही सुरक्षित रह सकते हैं, जो स्त्री के आलिङ्गन में बद्ध हों, रजाई हो और अङ्गीठी जलती हुई पास में हो / ऐसे लोगों का शीत कुछ नहीं बिगाड़ सकती है (9.24, 44) भयभीत सूर्य की गर्मी ने स्त्रियों के कुचस्थलों में शरण ले रखी है (9.30, 33) / कवि ने शीतकालीन वायु को पति के रूप में चित्रित किया है - रुचा कचानाकलयञ्जनीष्वयं नितम्बतो वस्त्रमुतापसारयन्। रदच्छदं सीत्कृतिपूर्वकं धवायते दधच्छैशिर आशुगोऽथवा॥ 9.23 361