________________ पुष्प-पराग का विस्तार (6.25); पलाशवृक्ष आम्रवृक्ष, लवङ्गलता, गुलाब, लालकमल का विकास (6.34), कोयल की कूक, भ्रमरगुञ्जन आदि इसी ऋतु की चेष्टाएँ हैं। वसन्त में सूर्य मन्दगति क्यों है ? -मृगनयनी स्त्रियों के मुखकमल को देखने के लिए माना सूर्य ने अपने रथ की गति को मन्द कर दिया है (6.29) / सूर्यगति की मन्दता से दिन बड़े होने की अन्य प्रकार से भी कल्पना की है (21.1) / इसी तरह विविध रूपों में वसन्त को कवि ने चित्रित किया है। (2) ग्रीष्म ऋतु ( 12.1-31) भगवान महावीर के उग्र तपश्चरण काल को उद्देश्य करके ग्रीष्म ऋतु का वर्णन किया गया है। ज्येष्ठ और आषाढ मास में जब सूर्य वृष और मिथुन राशि में रहता है तब ग्रीष्म काल माना जाता है / इन दिनों सूर्य प्रचण्ड रूप से तपता है और दिन बड़े होने लगते हैं कवि ने दिन बड़े होने की अभिनव उत्प्रेक्षा की है - विलोक्य वीरस्य विचारवृद्धिमिहेर्प्य येवाथ बभूव गृद्धिः / वृषाधिरुढस्य दिवाधिपस्यापि चार आत्तोरुतयेति शस्या // 12.1) अर्थ - भगवान के सद विचारों की वृद्धि को देखकर उनके प्रति ईर्ष्या करते हुए मानों वृष राशि पर आरुढ सूर्य का सञ्चार भी दीर्घता को प्राप्त हो गया है। अर्थात् दिन बड़े हो गए हैं क्योंकि सूर्य रास्ता अधिक समय में तय कर पाता है। दिन क्यों बड़े होते है वसन्त में ? एक उत्प्रेक्षा यहाँ देखो (6.29) / अब इसी क्रम में गर्मी में दिन क्यों बड़े होते है दूसरी उत्प्रेक्षा देखिए - प्रयात्यरातिश्च रविर्हिमस्य दरीषु विश्रम्य हिमालयस्य / / नो चेत्क्षणक्षीणविचारवन्ति दिनानि दीर्घाणि कुतो भवन्ति // 12.20) अर्थ - हिम का सहज वैरी सूर्य भी हिमालय की गुफाओं में विश्राम करके आगे बढ़ता है इसीलिए दिन दीर्घ हो रहे हैं / पृथ्वी पर सूखा क्यों पड़ा है? स्वतो हि सजृम्भितजातवेदा निदाघके रुग्ण इवोष्णरश्मिः / चिरादथोत्थाय करैरशेषान् रसान्निगृह्णात्यनुवादि अस्मि // 12.2 // अर्थ - ग्रीष्म में बढ़ी हुई जठराग्नि वाला सूर्य रुग्ण पुरुष के समान आचरण करता हुआ अपने करों (किरणों) से पृथ्वी के समस्त रसों को ग्रहण कर ले रहा है / अतः सूखा पड़ा है / इसी प्रंसग में 12.31.भी देखें। इसी प्रकार कई अन्य कल्पनायें कवि ने ग्रीष्मकाल से सम्बन्धित की हैं - भैसों की स्थिति (12.13), सर्य की गति (12.11), कुत्तों की लपलपाती जिह्वा (12.7), पथिक जनों की तृष्णा (12.4) पतङ्ग उड़ाती निःसन्तान स्त्रियाँ (12.25-26) आदि / स्नान, चन्दन-विलेपन, पुष्पमाला धारण (12.25) आदि का वर्णन अन्य कवियों के समान मिलता है, इनसे गर्मी में कुछ राहत तो मिलती है परन्तु कामीजनों के लिए त्राण के लिए तो स्त्रियाँ ही सरोवरी (सरसी) हैं (12.30) क्योंकि शीतलता इन दिनों मात्र स्त्रियों के पयोधरों में विराजती है (12.18) / कवि ने ग्रीष्म के लिए निदाघकाल (12.2) और खरकाल (4.11) का प्रयोग किया है। (3) वर्षा ऋतु (4.1-26) भगवान् महावीर जब आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को पटरानी के गर्भ में आते हैं तो उसके बाद वर्षा ऋतु का प्रारम्भ हो जाता है (4.1, 2) / सूर्य श्रावण और भाद्रपद मास में कर्क और सिंह राशि में रहता है तब वर्षा ऋतु मानी जाती है। इस समय पृथिवी ग्रीष्म जनित सन्ताप से उन्मुक्त होकर हरीभरी हो जाती है और मानो हर्ष से उल्लसित हो जाती है (4.3) / सरकण्डे पैदा हो जाते हैं तथा अनेक प्रकार की औषधियाँ भी अंकुरित होने लगती है (4.4) / मयूर का नृत्य (4.6), मृदङ्गवत् मेघ-ध्वनि (4.5), मेढक की टर्र-टर्र आवाजें (4.17), कुटज वृक्षों के फूल (4.78), नक्षत्रों के रूप में जुगुनुओं की पृथ्वी पर चमक (4.20), नितम्बिनियों का झूलनोत्सव (4.21) आदि इस ऋतु के आकर्षण हैं। इस ऋतु को कवि ने इसके गुणानुरूप विभिन्न नामों से स्मरण किया है। जैसे - रसायनाधीश्वर (4.4), कलिकाल (4.6-8), दुर्दिनकाल (4.7), नीलाम्बरा प्रावृड् (4.10) आदि। वसन्त सम्राट के वियोग से वियोगिनी तथा निष्प्रभ हुई पृथ्वी के उपकार के लिए इस वर्षा ऋतु ने मानो दिशारूपी सहेलियों के सहयोग से मेघों के ब्याज से चारों ओर विशाल कमल-दलों को फैला दिया हैं - वसन्त सम्राड्विरहादपतु दिशावयस्याभिरिवोपकर्तुम्।। महीमहीनानि घनापदेशाद् धृतानि नीलाब्जदलान्यशेषात् / / 4.5 359