Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 378
________________ कल्याणकों के समय जो ऋतु थी, उसका वहीं पर चित्रण किया है। वीरोदय काव्य का ऋतुवर्णन कवि सम्प्रदायानुकूल होते हुए भी कहीं कहीं अपनी विशेषता को लिए हुए है। अभिनव कल्पनाओं और अलङ्कारों से समलङ्कृत है। वीरोदय काव्य के ऋतुवर्णन की प्रौढ़ अलङ्कृत शैली का रसास्वादन कीजिए(1) वसन्त ऋतु (4.5/6.12-36/12.22) वसन्त ऋतु को सभी ऋतुओं का सम्राट् कहा जाता है। वीरोदय काव्य में भी वर्षाऋतु के वर्णन प्रसङ्ग में 'वसन्त सम्राट' (4.5) कहा गया है। इस ऋतु में पुष्पों की समृद्धि होती है, अत: इसे 'पौष्प्येसमये' (6.16) कहा है। आनन्दोत्पादक एवं सरोजिनी के सौरभसार से सुगन्धित वायु के प्रवाहित होने से इसे ग्रीष्म वर्णन प्रसङ्ग में 'सरोजिनी सौरभसारगन्धिमधौ' (12.22) कहा है। इसके अलावा इसके गुणों के अनुरूप इस ऋतु को 'कुसुमोत्सवः' (6.18), 'नर्मश्री ऋतु' (6.36), 'सुरभि:'(6.12), 'अनङ्गैकसखा' (6.13), 'मधुसमय'(12.22) आदि नामों से उल्लिखित किया है। भारतीय संवत्सर के अनुसार इस वसन्त का काल सामान्य रूप से चैत्र-वैशाख मास में जब सूर्य मीन और मेष राशि में रहता है, माना जाता है। वीरोदय काव्य में माघ के बाद आने वाले फाल्गुन मास से इस बसन्त को स्वीकार किया है (समक्ष माघादतिवर्तमाने 6.24 तथा संस्कृत टीका)। यह समय शिशिर ऋतु का है जिसे कवि ने वसन्त का शैशव काल कहा है (6.32) / कवि ने इस ऋतु का वर्णन करते हुए भगवान महावीर के जन्म काल चैत्र शुक्ला त्रयोदशी तक ही वर्णन किया है (6.38) क्योंकि भगवान के जन्मप्रसङ्ग से ही इस वसन्त ऋतु का वर्णन किया गया है / वसन्त ऋतु में सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण हो जाता है। इस बात को ध्यान में रखकर कवि ने हेतु प्रस्तुत किया। है जो बड़ा मनोरञ्जक है - प्रदाकुदाङ्कितचन्दनाक्तौर्याम्यैः समीररिव भीतिभाक्तैः। कुबेरकाण्ठाऽऽश्रयणे प्रयत्नं दधाति पौष्ये समये युरत्नम्। 6.16 / चन्दन वृक्षों से लिपटें हुए सो के नि:श्वास का विष दक्षिण से आने वाली मलयानिल से मिश्रित रहता है। यह दक्षिणी मलयानिल बसन्त में बहने लगता है कहीं सर्यों के विष का दुष्प्रभाव मेरे ऊपर न पड़े इसी भय से सूर्य दक्षिण दिशा में न जाकर उत्तर दिशा की ओर गमन करने लगता है। दूसरी ओर कवि दक्षिणानिल बहने का कारण भिन्न प्रकार से बतलाता है रविरयं खलु गन्तुमिहोद्यतः समभवद्यदसौ दिशमुत्तराम्। दिगपि गन्धवहं ननु दक्षिणा वहति विप्रियनिश्वसनं तराम् // 6.33 जब सूर्य दक्षिण दिशा रूपी स्त्री को छोड़कर उत्तर दिशा रूपी स्त्री के पास जाने के लिए उद्यत हुआ तो पतिवियोग से दुःखित दक्षिणदिशा के दीर्घ निःश्वास दक्षिण वायु के रूप में बह रहा है / वसन्त राज और वनलक्ष्मी के मणिग्रहण के रूप में वसन्त वर्णन दर्शनीय है - वन्या मद्योः पाणिधृतिस्तदुक्तं पुंस्कोकिलैर्विप्रवरैस्तु सूक्तम्। साक्षी स्मराक्षीणहविर्भुगेष भेरीनिवेशोऽलिनिनाद देशः // 6.14 बसन्तराज और वनलक्ष्मी के पाणिग्रहण(विवाद) पर नरकोयल रूप ब्राह्मण के वचन मन्त्रोच्चार हैं, कामदेव की प्रज्ज्वलित अग्नि ही होमाग्नि रूप साक्षी है ओर भौरों का गुञ्जन ही भेरी निनाद (बाजों का शब्द) है। इस वसन्त में वनस्थली वैश्या के समान प्रतिदिन समृद्धि को प्राप्त हो रही है, रागोत्पादक कामदेव चोर की तरह पथिक जनों पर तीक्ष्ण बाण चला रहा है, इस राज शृङ्गार सर्वत्र अतिथि रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त कर रहा है और समस्त बन्धु-जनसमूह वसन्तश्री के कौतुक करने वाले विदूषक के समान हर्ष को प्राप्त हो रहा है (6.37) विरहिणियों को सन्ताप देकर इस बसन्त ने जो अपरिहरणीय पाप का अर्जन किया है वही उदय में आकर भौरों के गुञ्जन के बहाने मानों बसन्त को दुःखी कर रहा है (6.36) वसन्त में आम्रवृक्ष की मञ्जरी को देखकर विरही पथिक अपनी प्रिया को याद करके मानो मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। अर्थात् कामवासना की अभिवर्धक यह ऋतु है (6.29) वसन्त में कामदेव के पाँच बाण इस प्रकार हैं, जो इस समय सक्रिय हो जाते हैं-पुषों को उद्गम, भ्रमर गुञ्जन, दक्षिणानिल का प्रवाह, स्त्रियों की स्वाभाविक चेष्टायें और कोयल की कूक (6.22) / 358

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