________________ प्राप्त किए। अर्थात् भगवान् ऋषभदेव के चरणों का सान्निध्य पाकर राजा के नेत्रों से हर्ष के अश्रु निकलने लगे जो अश्रु मोती के कणवत् थे। संसार - सागर - सुतीर- वदादिवीर - श्रीपादपादप - पदं समवाप धीरः। तत्राऽऽनमंस्तु झरदुत्तरलाक्षिमत्वा - न्मुक्ताफलानि ललितानि समाप सत्त्वात्।। 26.69 इस तरह जयोदय महाकाव्य में रसादि के अनुकूल ललितपदयोजना करते हुए कवि भूरामलजी ने कला पक्ष के साथ भाव पक्ष का भी पूरा ध्यान रखा है। अनुप्रास और यमक भिन्न विविध अलङ्कारों में भी पद्य रचना होते हुए भी ललितपदयोजना द्वारा कवि पदलालित्य में प्रसिद्ध दण्डी, माघ और श्रीहर्ष से भी आगे निकल गए हैं। काव्य में केवल पदों की तुकबन्दी नहीं है अपितु कवि का अभिनव ललितपदसन्निवेश सहसा सहृदयों के हृदयों को आवर्जित कर लेता है। पश्चात् अर्थप्रतीति के माध्यम से काव्य रस में डुबो देता है। कैसा भी वर्णनप्रसङ्ग हो कवि पदलालित्य के सन्निवेश के प्रति सजग है। कवि की अन्य काव्य रचनाओं में भी यह प्रवृत्ति देखी जाती है / सन्दर्भ - 1. शब्दचित्रं वाच्यचित्रमव्यङ्गयं त्वरं स्मृतम्। काव्यप्रकाश - 1.5 2. शक्तिर्निपुणता लोकशास्त्रकाव्याद्यवेक्षणात् काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे।। का प्र.1.3 शक्ति: कवित्वबीजरूप: संस्कारविशेषः, यां विना काव्यं न प्रसरेत, प्रसृतं वा उपहसनीयं स्यात् / वही टीका 3. देखें, आगे रसों के पदलालित्य। 4. माधुर्यव्यञ्जकैर्वर्णैः रचना ललितात्मका। अवृत्तिरल्पवृत्तिर्वा वैदर्भी रीतिरष्यिते // साहित्यदर्पण 9.2 गुणों के व्यञ्जक वर्ण - मूर्ध्नि वर्गान्त्यगा: स्पर्शा अटवर्गा रणौ लघू। अवृत्तिमध्यवृत्तिर्वा माधुर्ये घटना तथा // का. प्र. 8.74 योग आद्यतृतीयाभ्यामन्त्ययोरेण तुल्ययो। टादिः शषौ वृत्तिदैर्घ्य गुम्फ उद्धत ओजसि / / का. प्र. - 8.75 स्तुतिमात्रेण शब्दात्तु येनार्थप्रत्ययो भवेत् / साधारणः समग्राणां स प्रसादो गुणो मतः।। का.प्र. 8.76 रीतियाँ - (क) वैदर्भीरीति, देखें इसी फुटनोट का प्रारम्भ। (ख) गौड़ी रीति - 'ओजः प्रकाशकैवर्णैबन्ध आडम्बर: पुनः। समासबहुला गौडी........... / सा.द.-9.3 (ग) पाञ्चाली रीति -वर्णैः शेषैः पुनर्द्वयो। समस्तपञ्चपदोबन्धः पाञ्चालिका मता // सा.द. 9.4 5-7. करुणे विप्रलम्भे तच्च्छान्ते चातिशयान्वितम्। दीप्त्यात्मविस्तृतेर्हेतुरोजो वीररसस्थितिः।। का.प्र. 8.69 बीभत्सरौद्ररसयोस्तस्याधिक्यं क्रमेण च। शुष्कन्धनाग्निवत् स्वच्छजलवत्सहसैव यः / / का. प्र. 8.70 व्याप्रोत्यन्यत् प्रसादोऽसौ सर्वत्र विहितस्थितिः / / का.प्र. 8.7 8. तददोषौ शब्दार्थौ सगुणानवलङ्कृती पुन: क्वापि।। का.प्र. 1.4 9. देखें, टि. 4,7 वीरोदय (महावीर चरित ) काव्य में ऋतु वर्णन प्राणियों के लिए नवचेतना प्रदान करने वाली प्रकृति ऋतुओं के रूप में नववधू के समान परिणमित होती है। इसीलिए काव्यशास्त्रियों ने महाकाव्य का लक्षण करते हुए उसमें ऋतुवर्णन का सन्निवेश किसी न किसी रूप में आवश्यक माना है, ऋतु प्रकृति-प्रदत्त एक वरदान है। महाकवि ने वीरोदय काव्य में भगवान महावीर के जीवन चरित्र का वर्णन करते हुए उनके गर्भ, जन्म आदि 357