________________ अवगाहन करके मानव सही रूप में सद्य:परिनिर्वृति: प्राप्त कर सकता है। पदलालित्य के विविध उदाहरण (1) अनुप्रास अलङ्कार के साथ चतुष्पादान्तव्याप्त पदलालित्य जयोदय महाकाव्य में अनुप्रास अलङ्कार से अनुप्राणित पदलालित्य प्रयेक सर्ग में बहुलता से व्याप्त है। पदलालित्य के होने पर अनुप्रास स्वभावतः होता है। जैसे - अमी शमीशानकृपां भजन्ति, जनु_नूनं निजमामनन्ति। पादोदकं पक्षिगणाः पिबन्ति वेदध्वनिं नित्यमनूच्चरन्ति / / 1/87 अर्थ - ये पक्षीगण समतासम्पन्न ऋषियों की कृपा प्राप्त करते हैं तथा उससे अपने जन्म की सफलता मानते हैं। उनके चरणोदक का पान करते हैं। ऋषिप्रोक्त वेदध्वनि (द्रव्यानुयोग शास्त्र) का अनुकरण करते हैं। यहाँ माधुर्यगुण तथा वैदर्भीरीति है। भजन्ति, आमनन्ति, पिबन्ति और अनूच्चरन्ति इन पदों के द्वारा चारों पदों की तुकबन्दी की गई है। अमी- शमी में तथा नकार, पकार, दकार के प्रयोगों में अनुप्रास अलङ्कार है। इस तरह इस पद्य में चतुष्पादन्याप्त पदान्त तुकबन्दी के साथ पदलालित्य है। अन्य उदाहरण (सन्ध्याकाल के वर्णन प्रसङ्ग में) पतत्यहो वारिनिधौ पतङ्ग, पद्मोदरे सम्प्रति मृत्तभृङ्गः। आक्रीडकद्रोनिलये विहङ्गः शनैश्च रम्भोरुजनेष्वनङ्गः।। 15/20 अर्थ - सूर्य समुद्र में गिर रहा है। मत्तभ्रमर कमल के भीतर, पक्षी उद्यानवृक्षस्थ घोंसले में जा रहे हैं। काम धीरेधीरे स्त्रियों के मन में प्रवेश कर रहा है। यहाँ पतङ्ग, मत्तभृङ्ग, विहङ्गः, और अनङ्ग पदों के द्वारा चतुष्पाद व्याप्त पदान्त तुकबन्दी के साथ पदलालित्य है प, न और र वर्ग में अनुप्रास भी है। माधुर्य और प्रसाद गुण है। प्रात:काल के वर्णन प्रसङ्ग में एक अन्य मनोहारी रचना द्रष्टव्य है - मन्दत्वमञ्चति विधोर्मधुरे प्रकाशे, पर्याप्तिमिच्छति चकोरकृते विलासे। सस्पन्दभावमधिगच्छति वारिजाते, सर्वत्र कीर्णकरन्दिनि वाति वाते।। 18/6 अर्थ - जब चन्द्रमा का मधुर प्रकाश मन्दता को प्राप्त हो रहा था, चकोरपक्षियों का नृत्यादि विलास व्यापार शान्त हो रहा था, कमल विकसित हो रहा था और सर्वत्र मकरन्द (पराग) को मिलने वाले वायु बह रही थी जब उषा की लाली फूट रही थी तब पक्षीगण कल कल ध्वनि से अनित्यानुप्रेक्षा को सार्थक कर रहे थे। यहाँ शान्त रस के स्थायी भाव निर्वेद का ध्वनि है। माधुर्य गुणयुक्त इस पद्य के पदलालित्य से कौन मदहोश नहीं होगा। इसी प्रकार सप्तभङ्गी के 'स्याद् अवक्तव्य' जैसे नीरस विषय की उपमा मधुर पदलालित्य से कवि ने दी है - नो नक्तमस्ति न दिनं न तमः प्रकाशः, नैवाथ भानुभवनं न च भानुभासः। इत्यर्हतो नृप! चतुर्थवचो विलासः, सन्देशके सुसमये किल कल्यभासः।। 18/62 अर्थ- हे राजन् ! अर्हन्त के चतुर्थ वचन (स्याद् अवक्तव्य) का संदेश देने वाले इस सुन्दर प्रभातकाल में न रात है, न दिन है, न अन्धकार है, न प्रकाश है, न नक्षत्रों का भान है और न सूर्य की दीप्ति है। इसी प्रकार अन्य पद्यों में तुकबन्दी रूप पदलालित्य प्रायः प्रत्येक सर्ग में बहुत अनायास प्रयुक्त हुआ है। जैसे - अग्रवर्ति इयर्ति ममेयं मेयं (1.23), मन्यैः -धन्यैः (5.13), अधिकार:- उपचारः (49), पदैर्लालितैः- श्लोकसङ्कलितैः (6.5), भृङ्ग-भृङ्ग (15.8), अतिकाली-कचपाली (14.10), श्रीध्वजवस्त्रपल्ल: दीपशिखांशमल्लः (16.7), अभिरामेयामे (18.5), अर्हतीव-सतीव (18.3), दलित्वा-छलित्वा(18.36), विचारभावा प्रभावा (18.37), अधिकार-प्रचार: (18.65), उत्सवाय-विस्मयाय (18.56) आदि। अधिक क्या कहें प्रथम सर्ग का प्रथम पद्य भी इस पदलालित्य से अछूता नहीं है - श्रियाश्रितं सन्मतिमात्मयुक्त्याऽखिलज्ञमीशानमपीतिमुक्त्या। तनोमि नत्वा जिनपं सुभक्त्या, जयोदयं स्वाभ्युदयाय शक्त्या॥ 1/1 कुशल क्षेम पूछते हैं तो भी पदलालित्य की भाषा का प्रयोग करते हैं - नयनतारक ! मेऽप्युपकारक ! सुहृद् आवृज वैरिनिवारक! 355