________________ जयोदय में पदलालित्य अट्ठाईस सगों में व्याप्त आचार्य ज्ञानसागर (महाकवि भूरामल) द्वारा रचित जयोदय महाकाव्य कवि कल्पनाओं का अनुपम भण्डार है। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध (ई. सन् 1937) में रचित इस ऐतिहासिक एवं पौराणिक महाकाव्य की रचना से पूर्ववर्ती दो शताब्दियों से शुष्क पड़ी जैन संस्कृत महाकाव्य धारा पुनरुज्जीवित हो गई। यह महाकाव्य महाकवि माघ, भारवि और श्रीहर्ष की शैली से विशेषतः अनुप्राणित है तथा काव्य प्रतिभा के चमत्कारों से भरा पड़ा है। इसके कलापक्ष और भाव पक्ष दोनों ही सहृदयों को आह्लादित करते हैं। कलापक्ष से विशेषतः सम्बन्धित 'पदलालित्य' या 'ललितपदयोजना' जयोदय महाकाव्य में अद्भुत है तथा वह समग्र महाकाव्य में परिव्याप्त है। कवि ने इस पदलालित्य की योजना अनुप्रास, यमक, शब्दश्लेष, विरोधाभास आदि विविध अलङ्कारों के प्रयोग के साथ की है जिस पर कोई कमनीया कामिनी अपने विलासयुक्त पदनिक्षेप द्वारा कामुकों के चित्त को बलात् चुरा लेती है, उसी प्रकार जयोदय महाकाल की ललित पदयोजना युक्त कविता - वनिता सहदयों के हृदयों को बलात् आकृष्ट कर लेती है। इसका रचना शिल्प कोमल और सरल है। इस काव्य में कवि ने एक शिल्पी के सदृश काव्यसौन्दर्य के लिए चुन-चुनकर ललितपदों के प्रयोग द्वारा अनिर्वचनीय लावण्यराशि की सृष्टि की है। काल में कवि का पदलालित्य विधान श्रुतिसुखद तो है ही साथ ही सहदयों के हृदय को भी परमानन्द देने में पूर्ण समर्थ है। अतएव इसका पदलालित्य मात्र बाह्य सौन्दर्य तक सीमित नहीं है, जैसाकि अधमकाव्यों में देखा जाता है, अपितु कविता के कोमल एवं गम्भीर हृदयपक्ष का भी मर्मस्पर्शी है तथा ध्वनिप्रदर्शन के साथ रसनिष्पत्ति में पूर्णतः समर्थ है। कवि ने खींच-खींचकर बलपूर्वक शब्दों की तुकबन्दी नहीं की है। कवि की कविता नव नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा समुत्पन्न है। मात्र अभ्यासजन्य नहीं वे केवल कला प्रदर्शन तक ही सचेष्ट नहीं हैं प्रत्युत वे मानव के अन्तस् तक रमने के लिए सचेष्ट हैं। इसीलिए इनके पदलालित्य में शृङ्गारादि रसों के अनुकूल माधुर्य आदि गुणों और वैदर्भी आदि रीतियों का सम्यक् सम्मिश्रण मिलता है। पदलालित्य वैदर्भी रीति और माधुर्यगुण के अनुकूल वर्ण योजना में अधिक रमणीयता को प्राप्त करता है। वैदर्भी रीति और माधुर्य गुण के व्यञ्जक वर्ण चित्त के द्रवीभाव में कारण होने से शृङ्गार, करुण और शान्तरस के अनुकूल माने जाते हैं। शान्तरस में ये वर्ण सर्वाधिक चमत्कारक होते हैं। वीर, वीभत्स और रौद्ररस की रचना में चित्त की विस्तारभूत दीप्ति के कारण गौडी रीति तथा ओजस गुण व्यञ्जक वणों का प्रयोग अनुकूल होता है। पाञ्चाली रीति और प्रसाद गुण के व्यञ्जक वर्ण सभी रसों के अनुकूल माने गए हैं। इससे इतना स्पष्ट है कि पदलालित्य यदि रसानुकूल हो तो अधिक चमत्कारक और हृदयस्पर्शी होता है, अन्यथा वह कलाप्रदर्शनमात्र होता है। पदलालित्य के क्षेत्र में दण्डी, माघ और श्री हर्ष (नैषधकार) के नाम संस्कृत काव्यजगत् में प्रसिद्ध हैं। जयोदयकार का काव्य भी इसी कोटि का है। नवीन, रमणीय तथा अनवद्य रसानुकूल पद शय्यायुक्त ललितपदावली में श्रुतिमधुरता, सङ्गीतात्मकता और लयात्मकता का सम्यक् विनियोग होता है। ऐसा विनियोग जयोदय महाकाव्य में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। कवि के अन्तःसौन्दर्य की अभिव्यक्ति पदलालित्य के रूप में काव्य कवि की वह कृति है जो श्रोता के मनोवेगों को तरङ्गित कर देवे। इसके लिए कवि भाषा के माध्यम से लोकमङ्गलकारी प्रेरणा के कान्तासम्मत प्रेरणा के रूप में सहृदय श्रोताओं तक पहुँचाता है। कवि के अन्त:सौन्दर्य की अभिव्यक्ति पदलालित्य के रूप में होती है। कवि समाधिस्थ होकर अन्त:चक्षु से उस सौन्दर्य का पान करता है और वह अन्तःसौन्दर्य शब्द का आश्रय लेकर प्रकट होता है। जिसे अन्त:सौन्दर्य की अभिव्यक्ति नहीं है, वह कैसे शब्दसौन्दर्य से रसानुकूल अर्थ दोनों का औचित्य अपेक्षित होता है। इसलिए काव्य को शब्दार्थोभयगत माना गया है। 'क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति, तदेवरूपं रमणीयतायाः', यह उक्ति भी पदलालित्य में विशेषरूप से चरितार्थ होती है। जयोदय में अभिनव पदलालित्य-योजना, शोभाकारक अलङ्कारों का सन्निवेश और शान्तरस की माधुरी रूपी त्रिवेणी प्रवाहित हुई है, जिसमें 354