________________ देवसेन के भावसंग्रह (ई. 940 के आसपास) की 'नोकम्मकम्महारो' गाथा उद्धत है। अत: इनका समय ई. 940 के बाद और ई. 1118 के पूर्व होना चाहिए। रचनायें डॉ. नेमीचन्द्र शास्त्री ने आचार्य प्रभाचन्द्र की निम्न रचनायें सप्रमाण निर्णीत की हैं - (1) प्रमेयकमलमार्तण्ड (परीक्षामुख-व्याख्या) (2) न्यायकुमुदचन्द्र (लघीयस्त्रय-व्याख्या)" (3) तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण (सर्वार्थसिद्धि-व्याख्या) (4) शाकटायनन्यास (शाकटायनव्याकरण-व्याख्या) (5) शब्दाम्भोजभास्कर (जैनेन्द्रव्याकरण-व्याख्या) (6) प्रवचनसारसरोजभास्कर (प्रवचनसार-व्याख्या) (7) गद्यकथाकोश (स्वतन्त्र रचना) (8) रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीका (9) समाधितन्त्र टीका (10)क्रियाकलाप टीका (11) आत्मानुशासन टीका (12)महापुराण टिप्पण जुगलकिशोर मुख्तार ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीका और समाधितन्त्रटीका को अन्य प्रभाचन्द्रकृत माना है। प्रभाचन्द्र की रचनायें यद्यपि व्याख्यात्मक है परन्तु वे व्याख्या में इतनी महत्त्वपूर्ण हैं कि उन्होंने स्वतन्त्र ग्रन्थ का रूप ले लिया है। वस्तुत: वे अद्भुत व्याख्याकार हैं। प्रथम दो रचनायें जैन न्याय की प्रौढ़ रचनायें हैं। इन टीका-ग्रन्थों में प्रभाचन्द्र ने विविध विकल्पजालों का प्रयोग करके परपक्ष का खण्डन किया है। जिन परपक्षों का खण्डन किया गया है उनमें कुछ इस प्रकार हैं(1) चार्वाक - भूतचैतन्यवाद, प्रत्यक्षैकप्रमाणवाद। (2) बौद्ध - निर्विकल्पप्रत्यक्षवाद, चित्राद्वैतवाद, साकारज्ञानवाद, शून्यवाद, क्षणभङ्गवाद, अपोहवाद, त्रैरूप्यहेतुवाद। (3) वैयाकरण - स्फोटवाद, शब्दाद्वैतवाद / (4) न्यायवैशेषिक-कारकसाकल्यवाद, सन्निकर्षवाद, ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद, पाञ्चरूप्यहेतुवाद, षट्पदार्थवाद, ईश्वरवाद। (5) सांख्य-योग-इन्द्रियवृत्तिवाद, प्रकृतिकर्तृत्ववाद, अचेतनज्ञानवाद। (6) मीमांसक - शब्दनित्यवाद, वेद अपौरुषेयवाद, परोक्षज्ञानवाद, अभावप्रमाणवाद। (7) वेदान्त - ब्रह्मवाद।। (8) श्वेताम्बर जैन- स्त्रीमुक्तिवाद, केवलिकवलाहारवाद। आचार्य प्रभाचन्द्र ने इन परिपक्षों के प्रस्तुतीकरण में जिन ग्रन्थों का उपयोग किया है, वे हैं - प्रशस्तपादभाष्य (कणादसूत्र पर प्रशस्तपाद का भाष्य), व्योमवती (व्योमशिव की भाष्य टीका). न्यायभाष्य (न्यायसूत्र पर वात्स्यायन का भाष्य), न्यायवार्तिक (उद्योतकरकृत), न्यायमञ्जरी (जयन्तकृत), शाबर भाष्य, श्लोकवार्तिक (कुमारिलभट्टकृत), बृहती (प्रभाकर), प्रमाणवार्तिकालङ्कार (प्रज्ञाकरगुप्त), तत्त्वसंग्रह (शान्तरक्षित) आदि। प्रभाचन्द्र ने इन ग्रन्थों का गहन अध्ययन करके उनकी ही शैली में प्रबल युक्तियों द्वारा उनका खण्डन किया है। इस तरह जैन न्याय में नवीन शैली को जन्म दिया तथा दर्शनान्तरों में उपलब्ध व्योमवती, न्यायमञ्जरी जैसे प्रौढ़ व्याख्याग्रन्थों की कमी को पूरा किया। जैन-न्याय के विकास में इनका यह योगदान सदैव याद किया जायेगा। जैन-न्याय के अतिरिक्त जैन-व्याकरण आदि के क्षेत्र में किया गया योगदान भी चिरस्मरणीय रहेगा। सन्दर्भ - 1. प्रभाचन्द्र नाम के अन्य कई आचार्यों के उल्लेख मिलते हैं। जैसे - (क) श्रमणबेलगोला के प्रथम शिलालेख में जिन प्रभाचन्द्र का उल्लेख है वे सम्भवतः भद्रबाहु श्रुतकेवली के शिष्य सम्राट चन्द्रगुप्त हैं। इनका समय वि.स. 300 से भी पूर्व है। 352