________________ मालवनरेश अर्जुन वर्मा बाल सरस्वती महाकवि मदन आदि को काव्यशास्त्र का अध्ययन कराया। (देखो, सागारधर्मामृत भूमिका, श्री पं0 नाथूरामजी प्रेमी।) 8. विशेष परिचय के लिए देखो प्रशस्तियाँ एवं प्रेमी जी का निबन्ध / 9. 'जैन साहित्य और इतिहास' 'प्रेमी' जी मुख्य प्रशस्ति संग्रह। 10. देखिये निबन्ध श्री नाथूरामजी प्रेमी भूमिका सागारधर्मामृत। 11. मन्दबुद्धिप्रबोधार्थं महीचन्द्रेण साधुना। धर्मामृतस्य सागारधर्मटीकास्ति कारिता।। अनगार. प्र0 26 12. श्री प्रेमी' जी ने जैन साहित्य और इतिहास में अर्हद्दास का मदनकीर्ति द्वितीय नाम सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। जब वे कुमार्ग से सन्मार्ग में आये थे, तो अर्हद्दास नाम रख लिया। 13. पुरुदेव चम्पू में द्वितीय श्लोक के आँखों के स्थान पर मन को सम्बोधित करके लिखा है मिथ्यात्वपंककलुषे मम मानसेऽस्मिनाशाधरोक्तिकतकप्रसरैः प्रसन्ने। उल्लासितेन शरदा पुरुदेव भक्त्या , तच्चम्पुदंभजलजेन समुज्जजृम्भे / / - प्रेमीजी के निबन्ध से उद्धृत। 14. प्रकारान्तर से अथवा अन्य किसी आचार्य सम्मत निम्न आठ मूल गुणों की भोर भी निर्देश किया है - मद्यपलमधुनिशाशनपञ्चफलीविरतिपञ्चकाप्तनुती। जीवदया जलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणाः / 2.18 15. मद्यमांस मधुत्यागैर्सहोदुम्बरपञ्चकैः / अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुतौ / / सोमदेव मद्यमांसमधुत्यागैर्सहाणुव्रतपञ्चकम्। अष्टौ मूलगुणानाहुगृहीणां श्रमणोत्तमाः / समन्तभद्र हिंसासत्यस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाच्च बादरभेदात् / पूतान्मांसन्मद्याद्विरितिगृहिणोऽष्टसन्त्यमी।। जिनसेन 16. देवपूजा गुरुपास्ति: स्वाध्यायः संयमस्तथा। दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने / / पद्मविंशतिका 17. नित्यमह पूजा (2.25), अष्टाह्निक एवं इन्द्रध्वजपूजा (2.26),महामह पूजा (2.27)तथा कल्पद्रुमपूजा(2.28) ये पाँच प्रकारकी पूजायें हैं। अन्य का इन्हीं पाँच में अन्तर्भाव होता है (2.29), सागार मोहनलाल (उत्तरार्द्ध पृ0 212) 18. सागार का लक्षण - अनाद्यविद्यादोषोत्थ-चतु:संज्ञाज्वरातुराः / शश्वत् स्वज्ञानविमुखाः सागाराः विषयोन्मुखाः / / 1.2 अनाद्यविद्यानुस्यूतां, ग्रन्थसंज्ञामुपासितुम्।। अपारयन्तः सागराः, प्रायो विषयमूछिताः / / 1.3 श्रावक का लक्षणमूलोत्तरगुणनिष्ठामधितिष्ठन् पञ्चगुरुपदशरण्यः / दानयजनप्रधानो ज्ञानसुधां श्रावक: पिपासुः स्यात्।। 1.15 19. रत्नकरण्ड में लिखा है - अन्त:क्रियाधिकरणं तपः फलं सकलदर्शिनः स्तुवते। तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम्।। 350