________________ कारण है कि आपकी विद्वत्ता का लोहा लेना आसान नहीं था। विषय की गहराई में जाकर आप त्याज्य वस्तु का इस प्रकार से वर्णन करते हैं कि लगता है कि आजीवन उसका सेवन करने वाला प्राणी भी तत्क्षण छोड़ दे। परस्त्रीसेवन में सुखाभाव को देखिए - समरसरसरङ्गोद्गममृते च काचित् क्रिया न निवृत्तये। स कुतः स्यादनवस्थित-चित्ततया गच्छतः परकलत्रम्।। 4.54 अर्थ-समरस रङ्ग का उत्पन्न होना ही रति है जो स्वस्त्री सम्भोग से प्राप्तव्य है। परस्त्री सेवन से वह कथमपि सम्भव नहीं है क्योंकि परस्त्री सेवन के अवसर पर भोक्ता के चित्त में अस्थिरता और भय रहता है कि कहीं कोई आकर देख न ले। फलस्वरूप सम्भोग क्रिया ठीक से नहीं हो पाती है फिर उससे सुख पाना तो दूर की बात है। जिसमें लाभ नहीं उसे करने से क्या प्रयोजन ? माँस में अपवित्रता का प्रतिपादन स्थानेऽश्नन्तु पलं हेतोः स्वतश्चाशुचि कश्मलाः। श्वादिलालावदप्यधुः शुचिम्मन्याः कथं नु तत् // 2.6 अर्थ-अपने को पवित्र मानने वाले लोग स्वभाव से अपवित्र (सप्त धातु निमित होने से) तथा शिकारी कुत्ते आदि को लार से मिश्रित माँस को कैसे खा सकते हैं ? नीच व्यक्ति ही इसे खा सकते हैं। उपसंहार इस तरह जब हम सागारधर्मामृत पर दृष्टिपात करते हैं तो हमारे ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं। आशाधरजी के ग्रन्थों में सर्वाधिक लोकप्रिय यही ग्रन्थ है। इससे आपके अगाध पाण्डित्य और सर्वतोमुखी प्रतिभा का पता चल जाता है। अन्य ग्रन्थ तो इनके पाण्डित्य में चार चांद लगाने का कार्य करते है। सागारधर्मामृत आपके अगाधज्ञान का भण्डार है। जो ज्ञान की और आयु की परिपक्वावस्था में लिखा गया था। आज के युग की आवश्यकता का अनुपमेय ग्रन्थ है जो प्रत्येक जैन गृहस्थ के लिए मननीय है। सन्दर्भ सूची - 1. जिनधर्मोदयार्थं यो नलकच्छपुरेऽवसत्। 2. सरस्वत्यामिवात्मानं सारस्वत्याजीजनन् / यः पुत्रं छाहडं नाम रंजितार्जुनभूपतिम् / / भूमिका, सागारधर्मामृत प्रशस्ति 2 3. व्याघ्र रवालवरवंशसरोजहंसः काव्यामृतोधरसपानसुतृप्तगात्रः / सल्लक्षणस्य तनयो नयविश्वचक्षु राशाधरो विजयतां कलिकालिदासः / / 3 4. इत्युदयसेनमुनिना कविसुहृदा योऽभनन्दितः प्रीत्या। प्रज्ञापुञ्जोऽसीत् च योऽभिहितो मदनकीर्तियतिपतिना।। प्र.4 नाथूराम प्रेमी 5. लब्धं यदिह लब्धब्यं, तच्छ्रामण्यमहोदधिम् / मथित्वा साम्यपीयूषं, पिबेयं परदुर्लभम्। पुरेऽरण्ये मणौ रेणौ, मित्रे शत्रौ सुखेऽसुखे।। जीविते मरणे मोक्षे, भवे स्यां समधी: कदा।। मोक्षोन्मुख-क्रियाकांड-विस्मापितबहिर्जनः। कदा लप्स्ये समरसस्वादिनां पंक्तिमात्मदृक् / / शून्यध्यानैकतानस्य, स्थाणुबुद्धयाडुन्मृगैः / उद्धृष्यमाणस्य कदा, यास्यन्ति दिवसा मम / / सागारधर्मामृत 6.40-43 6. प्रशस्तिगत श्लोक श्री नाथूराम प्रेमी के 'जैन साहित्य और इतिहास' पृष्ठ 358 से लिए गये हैं। 7. पं. देवचन्द्र को व्याकरण शास्त्र, वादीन्द्र विशाल कीर्ति आदि को न्याय शास्त्र भट्टारक विनयचन्द्र आदि को धर्मशास्त्र, 349