________________ मिथ्यात्वकर्म पटलैश्चिरमावृते मे युग्मे दृशे कुपथयाननिदानभूते। आशाधरोक्तिलसदञ्जन-सम्प्रयोगैरच्छीकृते पृथुलसत्पथमाश्रितोऽस्मि / / 65 सूक्त्यैव तेषां भवभीरवा ये, गृहाश्रमस्थाश्चरितात्म-धर्माः। त एव शेषाश्रमिणां सहाय धन्याः स्युराशाधरसूरिमुख्याः / / भव्यजनकण्ठाभरण 23613 भावार्थ-1 कुमार्ग में भटकते हुए मैंने सन्मार्ग का परित्याग कर दिया था। अन्त में काललब्धि से जिनवचन रूपी क्षीरसमुद्र से निकाले गये धर्मामृत का पान करके मैं अर्हन्तदेव का दास हो रहा हूँ। 2. कुमार्गगामिनी मेरी दोनों आँखें जो मिथ्यात्व रूपी कर्मपटल से आवृत्त थीं, आज आशाधर की विशिष्टसूक्तियों रूपी अञ्जन से निर्मल हो गई हैं और मैं सन्मार्ग का आश्रय ले रहा हूँ। 3. सूरिश्रेष्ठ आशाधर धन्य हैं जिनकी सूक्तियाँ भवभीरु गृहस्थों और मुनियों के लिए सहायक (पथप्रदर्शक) हैं। इन पंक्तियों को देखने से प्रतीत होता है कि धर्मामृत जिनवचनरूपी क्षीरसमुद्र में दुहा गया अमृत है जिसके पान करने में भवभय की पीड़ा शान्त हो जाती है और मोक्ष का द्वार खुल जाता है। सागारधर्मामृत गृहस्थों के लिए दीपक के समान है। इसमें श्रावकधर्म सम्बन्धी सभी विषयों का विस्तृत, तर्कपूर्ण एवं सुस्पष्ट विवेचन प्रस्तुत किया है। सदाचार पर चलने से क्या फल होता है और कुमार्ग पर जाने पर क्या दुरवस्था होती है आदि का सचित्र चित्रण सरल और सरस शैली में किया गया है। विषय को स्पष्ट करने के लिए उदाहरणों की शरण ली गई है। श्रावक के धर्म से सम्बन्ध रखने वाला कोई भी विषय इसमें छूट नहीं पाया है। आज के युग में उठाये जाने वाले सभी प्रश्नों का भी उत्तर इसमें कहीं सूक्ष्म रूपसे और कहीं कुछ विस्तार से वर्तमान है। जब हम स्वामी समन्तभद्राचार्य के रत्नकरण्ड श्रावकाचार से तुलना करते हैं तो प्रतीत होता है कि जहाँ रत्नकरण्ड में सामान्य लक्षणनिर्देश मात्र किया गया है वहां पर सागारधर्मामृत में तार्किक प्रणाली को भी अपनाया गया है तथा विषय का विस्तार भी किया गया है। यद्यपि स्वामी समन्तभद्र बड़े तार्किक और विद्वान् थे परन्तु उनका रत्नकरण्ड श्रावकाचार सिर्फ सामान्य निर्देश करता है जिसकी पुष्टि आशाधर जी ने अपने सागारधर्मामृत में एक नवनीत के साथ की है। चूँकि आशाधर जी की दृष्टि समन्वयात्मक थी अतः पूर्ववर्ती सभी श्रावक धर्म प्रतिपादक ग्रन्थों का युक्ति सङ्गत-समन्वय युक्ति-प्रदर्शन पूर्वक किया है। जैसे मूलगुणों का वर्णन करते हुए अन्य पूर्ववर्ती आचार्यों के मत का भी उल्लेख कर दिया है - तत्रादौ श्रद्दधज्जैनीमाज्ञां हिंसामपासितुम्। मद्यमांसमधून्युज्झेत् पञ्च क्षीरफलानि च।। 2.2 इस श्लोक में मद्य मांस मधु तथा पाँच क्षीर फलों (उदुम्बर फलों) के त्याग को आठ मूल गुण गिनाकर अग्रिम कारिका में सोमदेव, समन्तभद्र और जिनसेन आचार्य के मत का भी विकल्प से उल्लेख करके समन्वय किया है - अष्टतान् गृहिणां मूलगुणान् स्थूलवधादि वा। फलस्थाने स्मरेद् द्यूतं मधुस्थाने इहैव वा / / 2-3 / / श्री सोमदेव ने तीन मकार और पाँच उदुम्बर फलों के त्याग को मूल गुण कहा है। श्री स्वामी समन्तभद्र ने तीन मकार और पाँचों पापों (हिंसा, असत्य, चौर्य, कुशील और परिग्रह) के त्याग को तथा जिनसेन ने मधु के स्थान में जुआ और पाँच पापों के त्याग को आठमूलगुण कहा है। इसमें आपको समन्वय की भावना तथा इनके प्रभाव की स्पष्ट झांकी देखने को मिलती है। संक्षिप्त रूप में विवेचन शैली का भी परिचय इसी श्लोक में मिलता है जिसमें अपने एक ही श्लोक में तीनों आचार्यों के लक्षणों का समावेश कर दिया है। इसी तरह पद्मनन्दि आचार्य द्वारा बताये गये गृहस्थ के छह कर्तव्यों में सर्व प्रथम देव पूजा का स्थान है। पं0 आशाधर ने भी देवपूजा का विशेष महत्त्व पाक्षिक श्रावक के कर्तव्यों में बताया है। महापुराण के आधार पर पूजा के प्रभेद भी किए हैं।" प्रतिपाद्य विषय - ग्रन्थ के प्रारम्भ में अर्हन्तों एवं मुनियों को नमस्कार किया गया है जिसमें प्रकृत ग्रन्थ के निर्माण का प्रयोजन भी बताया गया है 347