________________ अथ नत्वाहतोऽक्षूण चरणान् श्रमणानपि। तद्धर्मरागिणां धर्मः सागाराणां प्रणेष्यते।। 1.1 प्रथम अध्याय में सागार और श्रावक का अन्तर बताया गया है। द्वितीय अध्याय में सागारधर्म के धारण का अधिकारी एवं अष्टमूलगुणों का वर्णन है। विवाह पद्धति, दान, पूजा तथा भ्रष्टमुनियों को भी दान देने का उपदेश दिया है। तृतीय अध्याय में नैष्ठिक का लक्षण तथा मूलगुणों के अतिचारों का विवेचन है। चतुर्थ अध्याय में व्रत प्रतिमा और उत्तर गुणों की व्याख्या की गई है। पञ्चम अध्याय में अवशिष्ट उत्तर गुणों की विवेचना है। षष्ठ अध्याय में श्रावक की बड़ी ही सुन्दर दिनचर्या को बताया गया है। वैसे श्रावक प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर वैराग्य की भावना भाते हुए सायङ्काल सोवे ? यह अध्याय श्रावकों के लिए बड़ा ही उपयोगी है। आचार्य ने इस प्रकार की दिनचर्या का अवलम्बन करने वाले श्रावक को स्वर्गादिक्रम से मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी बताया है। सप्तम अध्याय में सामायिक आदि नौ प्रतिमाओं का विवेचन है तथा अष्टम अध्याय जो कि श्रावक और मुनियों का प्राणभूत अङ्ग है, में सल्लेखना का विचार किया गया है। सल्लेखना की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए आशाधरजी लिखते हैं कि 'अन्त भला सो सब भला' - आराद्धोऽपि चिरं धर्मों, विराद्धो मरणे मुधा। सत्वाराद्धस्तत्क्षणेऽहः क्षिपत्यपि चिरार्जितम्।। 8.16 / / नृपस्येव यतेधर्मो चिरमभ्यस्तिनोऽश्रवत्। युधीव स्खलतो मृत्यौ स्वार्थभ्रन्शोऽयशः कटुः।। 8.17 / / सल्लेखना कब धारण करना चाहिए ? कब नहीं धारण करना चाहिए ? विधि क्या है आदि सभी विषयों का बड़ा ही सुन्दर विवेचन किया गया है। इस तरह सागारधर्मामृत में गृहस्थ के सभी धर्मों की झांकी दर्पण में प्रतिबिम्बित मुख की तरह स्पष्ट झलकती है सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का प्रभाव देखिए कितना सुस्पष्ट है - नरत्वेऽपि पशूयन्ते मिथ्यात्वग्रस्तचेतसः। पशुत्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वव्यक्तचेतना / / 1.4 मिथ्यादृष्टि भी सम्यक्त्वी की तरह क्यों प्रतीत होते हैं - शलाकयेवाप्तगिराप्तसूत्र प्रवेशमार्गों मणिवच्च यः स्यात्। हीनोऽपि रुच्या रुचिमत्सु तद्वत्, भूयादसौ सांव्यवहारिकाणाम्।। 1.10 आज के इस सभ्यता के युग में तो सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि को पहचानना बड़ा हो कठिन हो गया है। आपकी प्रतिपादन शैली इतनी तार्किक, मार्मिक, सटीक, और प्रभावोत्पादक है कि देखते हो बनती है। कुछ उदाहरणार्थ प्रस्तुत है - (1) स्त्री-सम्भोग के दोषों का प्रतिपादन - सन्तापरूपो मोहाङ्ग-सादतृष्णानुबन्धकृत्। स्त्रीसंभोगस्तथाप्येष सुखं चेत्का ज्वरेऽक्षमा।।4.53 अर्थ-जब ज्वर और स्त्रीसम्भोग दोनों सन्ताप, शिथिलता, तृष्णा आदि के जनक हैं तब क्यों स्त्रीसम्भोग की तरह ज्वर को भी सुखकर माना जावे। (2) माँस और अन्न में जीवपना समान होने पर भी अन्न क्यों भोज्य है, माँस क्यों नहीं प्राण्यङ्गत्वे समेऽप्यन्नं भोज्यं मांसं न धार्मिकैः। भोग्या स्त्रीत्वाविशेषेऽपि, जनैर्जायैव नाम्बिका।। 2.10 जब माता, बहिन, पत्नी और लड़की में स्त्रीत्व धर्म समान है तब क्या कारण है कि पत्नी ही भोग्या है माता आदि नहीं ? इसी तरह जीवत्व समान रहने पर भी अन्न भोज्य है माँस नहीं। कितना सटीक एवं तार्किक उत्तर उदाहरण द्वारा कितने सरल और सुस्पष्ट शब्दों में दिया गया है जो देखते ही बनता है। इस तरह सागारधर्मामृत में सर्वत्र यही शैली पाई जाती है। विषय कितना ही कठिन और दुरूह क्यों न हो उसे सरस और सरल बनाने की आपमें अनुपम कला है। यही 348