________________ आचार्य प्रभाचन्द्र प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र आदि प्रसिद्ध जैन न्याय-ग्रन्थों के प्रणेता आचार्य प्रभाचन्द्र बहुत बड़े दार्शनिक और तार्किक थे। इनमें वैदिक और अवैदिक सभी दर्शनों का प्रगाढ पाण्डित्य था। ये अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। ये जिस विषय का भी खण्डन या समर्थन करते हैं प्रबल युक्तियों से करते हैं। अतः श्रवणबेलगोला के शिलालेख (संख्या 40) में इन्हें प्रथित 'तर्कग्रन्थकार' और 'शब्दाम्भोरुह- भास्कर' विशेषण से सम्मानित किया है। इससे इनके प्रखर पण्डिय की ख्याति का ज्ञान होता है। इनका समय ईसा की दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी माना जाता है। इनके गुरु थे पद्मनन्दि सैद्धान्तिक पद्मनन्दि से शिक्षा-दीक्षा लेकर ये उत्तर भारत में धारा नगरी आ गए। यहाँ आद्य जैन न्यायसूत्र परीक्षामुख के रचयिता आचार्य माणिक्यनन्दि का शिष्यत्व स्वीकार कर उनके परीक्षामुख ग्रन्थ पर प्रमेयकमलमार्तण्ड टीका लिखी। दक्षिण में इनके सधर्मा कुलभूषण मुनि थे जिनकी शिष्य परम्परा का उल्लेख श्रवणबेलगोला के शिलालेख (संख्या 55) में मूल सङ्घ के देशीयगण के देवेन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य चतुर्मुख देव और उनके शिष्य गोपनन्दि का उल्लेख है। वहीं गोपनन्दि के सधर्मा तथा धारानरेश भोज द्वारा पूजित प्रभाचन्द्र का भी उल्लेख है। सम्भवतः ये प्रभाचन्द्र प्रमेयकमलमार्तण्डकार ही थे क्योंकि आदिपुराणकार ने लिखा है -'प्रभाचन्द्र धाराधिप भोज के द्वारा पूजित थे। न्यायरूपी कमलसमूह (प्रमेयकमल) के दिनमणि (मार्तण्ड-सूर्य) थे। शब्दरूपी अब्ज (शब्दाम्भोज) के विकास करने को रोदोमणि (भास्कर) के तुल्य थे। पण्डितरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य थे। रुद्रवादि हाथियों को वश में करने के लिए अंकुश के समान थे तथा चतुर्मुखदेव के शिष्य थे।' यहाँ प्रभाचन्द्र का चतुर्मुखदेव का शिष्य होना विचारणीय है। सम्भव है, धारानगरी में आने के बाद ये प्रभाचन्द्र के द्वितीय गुरु हों। इनके लिए प्रयुक्त पण्डित विशेषण से ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में ये गृहस्थ थे परन्तु बाद में मुनि बने थे क्योंकि इनके लिए भट्टारक शब्द का भी प्रयोग मिलता है। धारानगरी इनकी कर्मस्थली थी और यहीं इन्होंने प्रमेयकमलमार्तण्ड लिखा। समय-विचार इनके समय के सम्बन्ध में विद्वानों के निम्न विचार है - (1) ई. सन् 8वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध एवं 9वीं का पूर्वार्द्ध - इस मत के मानने वाले हैं डॉ. पाठक, आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार आदि। इनके द्वारा इस मत को स्वीकार करने का आधार है जिनसेनकृत आदिपुराण (रचना-काल ई. सन् 840 के आसपास) का निम्न पद्य - चन्द्रांशु-शुभ्र-यशसं प्रभाचन्द्रकविं स्तुवे। कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाह्लादितं जगत्।। यहाँ चन्द्रोदय का अर्थ न्यायकुमुदचन्द्र किया गया है। इसका खण्डन पं. कैलाशचन्द्र जी ने किया है। हरिवंशपुराण में उल्लिखित प्रभाचन्द्र भी इनसे भिन्न हैं क्योंकि वे कुमारसेन के शिष्य थे और ये पद्मनन्दि के शिष्य। (2) ई. सन् 850 से 1020 ई. - इस मत के पोषक हैं पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री। पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य इनका समय ई. सन् 980 से 1065 मानते हैं। इन दोनों विद्वानों ने अपने-अपने पक्ष की पुष्टि में कई प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र की प्रशस्तियों में क्रमश: 'श्रीभोजदेवराज्ये' तथा 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये' लिखा है। पं. महेन्द्रकुमारजी इनका कर्ता प्रभाचन्द्र को मानते हैं परन्तु प. कैलाशचन्द्र और मुख्तार जी ऐसा नहीं मानते। (3) ई. सन् 11वीं शताब्दी - डॉ. दरबारीलाल कोठिया इस मत के पोषक हैं। इन्होंने माणिक्यनन्दि में गुरुशिष्यत्व के साथ समसामयिकत्व को भी सिद्ध किया है। डॉ. हीरालाल जैन तथा डॉ. नेमीचन्द्र शास्त्री भी इसी मत के पोषक हैं। 'सुदंसणचरिउ (समाप्ति वि सं. 1100) की प्रशस्ति में नयनन्दि ने माणिक्यनन्दि का उल्लेख किया है। अत: इनका समय 11वीं शताब्दी का पूर्वाद्ध होना चाहिए। वादीभदेवसूरि (ई. सन् 1118 के आसपास) ने अपने स्याद्वादरत्नाकर में प्रभाचन्द्र और उनके प्रमेयकमलमार्तण्ड का उल्लेख किया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में आचार्य 351