________________ रचनायें-(1) प्रमेयरत्नाकर (स्याद्वाद विद्या की प्रतिष्ठापना), (2) भरतेश्वराभ्युदय (महाकाव्य भरत के ऐश्वर्य का वर्णन है। इसे सिद्ध्यङ्क भी कहते हैं क्योंकि इस के प्रत्येक सर्ग के अन्त में सिद्धि पद आया है ), (3) ज्ञान दीपिका, (4) राजीमती विप्रलम्भ (खण्डकाव्य), (5) अध्यात्मरहस्य (योगग्रन्थ), (6) मूलाराधनटीका, (7) इष्टोपदेश टीका (8) भूपाल चतुर्विंशतिका टीका (9) आराधनासार टीका (10) अमरकोष टीका (11) क्रिया कलाप (12) काव्यालङ्कार टीका (13) सहस्रनामस्तवन सटीक (14) जिनयज्ञकल्प सटीक (दूसरा नाम प्रतिष्ठासारोद्धार-धर्मामृतका एक अङ्ग), (15) त्रिपष्ठि-स्मृति शास्त्र सटीक, (16) नित्यमहोद्योत (अभिषेक पाठ), (17) रत्नत्रय विधान, (18) अष्टाङ्गहृदयोद्योतिनी टीका (वाग्भट के आयुर्वेद ग्रन्थ अष्टाङ्गहृदय की टीका), (19) धर्मामृत मूल (सागार और अनगार दो भाग) (20) भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका (धर्मामृत पर लिखी गई टीका) इस टीका का नाम क्षोदक्षमा था परन्तु विद्वानों ने इसकी सरसता सरलता से मुग्ध होकर भव्यकुमुदचन्द्रिका नाम रखा। इन सब रचनाओं में अधिकांश अप्राप्य हैं तथा अधिकांश टीका ग्रन्थ हैं। इन्होंने उस समय में प्रचलित मत वैविध्य का समन्वय किया था, अपने स्वतन्त्र मत की स्थापना नहीं की थी। उनका सिद्धान्त था 'आर्ष सन्दधीत न तु विघटयेत'। इस विषय वैविध्य को देखकर कौन ऐसा महापुरुष होगा जो इनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा का लोहा न स्वीकार करेगा। समय-आपके उपलब्ध तीन ग्रन्थों में प्रशस्तियाँ मिलती हैं जिनसे इनके समय-निर्णय, रचना काल आदि का स्पष्ट परिचय मिल जाता है। इन तीनों ग्रन्थों को प्रशस्तियाँ प्रायः समान हैं स्थल विशेष पर थोड़ा अन्तर है। जिनयश कल्प वि. सं. 1285 में लिखा था जिसमें 10 ग्रन्थों का उल्लेख है जिन्हें इसके पूर्व लिखा होगा। द्वितीय प्रशस्ति सागारधर्मामृत की टीका (वि. सं. 1296) में काव्यालङ्कार, सहस्रनाम, जिनयज्ञकल्प, त्रिषष्ठि स्मृति, नित्य महोद्योत इन पाँच ग्रन्थों का भी उल्लेख मिलता है। तृतीय प्रशस्ति वि. सं. 1300 में अनागारधर्मामृत की टीका की समाप्ति पर लिखी गई। इसके आधार पर आपका कार्यकाल वि. सं. 1235 से वि. सं. 1300 के आसपास रहा होगा ? विन्ध्यवर्मा के सन्धिविग्रह मन्त्रि कवीश विल्हण ने इनकी प्रशंसा की है। इस तरह आपका पण्डित्य न केवल जैन शास्त्रों पर था अपितु जैनेतर शास्त्रों का भी अच्छा ज्ञान था। महत्त्व-सागारधर्मामृतः- यह धर्मामृत ग्रन्थ का उत्तर भाग है जिसमें श्रावकों के कर्त्तव्य आचार आदि का सम्यक् सदुपदेश दिया गया है। यह ग्रन्थ सागार के धर्म के अमृत तुल्य है अत: इसका नाम सागारधर्मामृत रखा गया है। पं. आशाधर ने स्वयं इसकी टीका लिखते समय लिखा है कि समुद्धर के पुत्र महीचन्द्र की प्रार्थना से श्रावकधर्मप्रदीप टीका लिख रहा हूँ जो मन्द बुद्धियों के प्रबोध के के लिए दीपक का काम करती है।' श्रीमान् श्रेष्ठि समुद्धरस्य तनयः श्री पौरपाटान्वयव्यामेन्दुः सुकृतेन नन्दतु महीचन्द्रो यदभ्यर्थनात्। चक्रे श्रावकधर्मदीपकमिमं ग्रन्थं वुधाशाधरो, ग्रन्थस्यास्य च लेखितोऽपि विदधे येनादिमः पुस्तकः।।" (सा. प्र. 22) आशाधर के रचित सभी ग्रन्थों में सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ धर्मामृत ही है। आशाधर स्वयं इस ग्रन्थ की महत्ता को जानते थे। अतः उन्होंने इस पर लिखी गई टीका को कल्पकाल पर्यन्त मुमुक्षुओं के चिन्तनार्थ रहने की अभिलाषा व्यक्त की है - विद्वद्भिर्भव्यकुमुदचन्द्रकेत्याख्ययोदिता। द्विष्ठाप्याकल्पमेषास्तां चिन्त्यमाना मुमुक्षुभिः।129 धर्मामृत का उत्तर भाग गृहस्थों के लिए लिखा गया है जिससे इसकी उपादेयता और भी अधिक बढ़ जाती है। इसकी उपादेयता को ही दृष्टि में रखकर इसे जैन धर्मशास्त्र की परीक्षा में भी रखा गया है। कवि 'अर्हद्दास'12 ने आपके इसी ग्रन्थ का अध्ययन करके निर्मल दृष्टि प्राप्त की थी और सन्मार्ग में प्रवृत हुए थे - धावन्कापथसम्भृते भववने सन्मार्गमेकं परं, त्यक्त्वा श्रान्ततरश्चिराय कथमप्यासाद्य कालादमुम्। सद्धर्मामृतमुद्धृतं जिनवचः क्षीरोदधेरादरात्, पायं पायमितः श्रमः सुखपथं दासो भवाम्यहंतः।। (मुनिसुवृत काव्य-64) 346