________________ पं. आशाधर की सर्वतोमुखी प्रतिभा और उनका सागारधर्मामृत पण्डित प्रवर आशाधर माण्डलगढ (मेवाड) के रहने वाले थे परन्तु बाद में शहाबुद्दीन गोरी के आक्रमणों से त्रस्त होकर मालवा की राजधानी धारानगरी जो उस समय विद्वानों का केन्द्र थी, में आकर रहने लगे। आपमें जातीयगत सङ्कीर्णता का अभाव था। अत: व्याघ्ररवाल (बघेरवाल) जाति में उत्पन्न होने पर भी समूचे जैनधर्म के उत्थान में अपने जीवन को अर्पण कर दिया। आपका कुल राज सम्मान प्राप्त था। अत: यदि आप चाहते तो किसी उच्च राज्य पद पर आसीन होकर ऐश और आराम को जिन्दगी गुजारते परन्तु आपने उस समय फैले हुए अज्ञान को दूर करने के लिए नालछा के नेमिचैत्यालय में एकनिष्ठता के साथ रहकर करीब 35 वर्ष गुजारे। यहीं पर आप स्वयं अध्ययन करते और अध्यापन कार्य के साथ ग्रन्थ रचना भी करते रहते थे। इनके पिता का नाम सल्लक्षण, माता का नाम श्रीरत्नी और पत्नी का नाम सरस्वती था। छाहड नाम का एक कुशल राजनैतिक आपका पुत्र भी था जिसकी प्रशंसा में आपने स्वयं लिखा है 'रञ्जितार्जनभूपतिः। आपका व्यक्तित्व और पाण्डित्य इतना महान् था कि मुनि उदयसेन ने इन्हें 'नयविश्वचक्षुः' और 'कलिकालीदास तथा मदनकीर्ति यतिपति ने 'प्रज्ञापुञ्ज जैसी सम्मानपूर्ण उपाधियों से विभूषित किया। यद्यपि आप आजीवन गृहस्थ ही रहे परन्तु इन्हें संसार से कोई मोह नहीं था। इनका आचरण मुनितुल्य या सच्चे श्रावक का था। उस समय में प्रचलित भ्रष्ट मुनियों के आचरण को देखकर ही शायद आपने मुनिदीक्षा धारण नहीं की थी। यदि आप मुनि-दीक्षा ले लेते तो शायद आप इतना अधिक कार्य न कर पाते जो गृहस्थ होकर कर सके। आपके गृहस्थ होने पर भी साधारण गृहस्थ से बहुत अन्तर है अन्यथा आपके लिए परवर्ती ग्रन्थक्रार 'सूरि' और 'आचार्य-कल्प' जैसे विशेषण से विभूषित न करते और न मुनि लोग आपकी शिष्यता ही स्वीकार करते। आपको 'पण्डितैभ्रष्टचारित्रैः बठरैश्च तपोधनैः। शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम्' इस श्लोक के आधार पर मुनियों का विरोधी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि आपने सागारधर्मामृत में स्पष्ट रूप से गृहस्थ के लिए मुनिपद प्राप्ति की भावना भाने के लिए लिखा है। मुनिव्रत को 'महोदधि' शब्द से निरूपित किया है। अतः इस विवेचन से सिद्ध है कि अप कार्य रूप से मुनि भले न रहे हों परन्तु आचरण मुनिवत् अवश्य रहा है। उपर्युक्त श्लोक के आधार पर सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि उस समय मुनियों का आचरण ठीक नहीं था। अत: उन्हें सदुपदेश देने की लिए धर्मामृत की रचना की। इसके प्रथम भाग में मुनियों के कर्तव्यादिकों का और उत्तर भाग में श्रावकों के कर्त्तव्यादिकों का बड़ा ही सुस्पष्ट, सारगर्भित, मार्मिक, युक्ति प्रधान और गम्भीर विवेचन प्रस्तुत किया है इसका हम आगे विवेचन करेंगे। सर्वतोमुखी प्रतिभा आशाधर जी बहुश्रुत, प्रतिभाशाली, समन्वयवादी, प्रौढ प्रबन्धकर्ता, तार्किक एवं जैनधर्म के मर्म के प्रकाशक थे। इनकी प्रतिभा काव्य, न्याय, व्याकरण, शब्दकोश, अलङ्कार, धर्मशास्त्र, योगशास्त्र, स्तोत्र, वैद्यक आदि सभी विषयों में चतुर्मुखी एवं असाधारण थी। प्रशस्ति में लिखा है - यो दाग्व्याकरणाब्धिपारमनयच्छुश्रूषमाणान्न कान्, षटतर्कीपरमास्त्रमाप्य नयतः प्रत्यर्थिनः केऽक्षिपन्। चेरुः केऽस्खलितं न येन जिनवाग्दीपं पथि ग्राहिताः, पीत्वा काव्यसुधां यतश्च रसिकेष्वपुः प्रतिष्ठा न के।। प्र0 अनगार 9 / / आशाधर के प्रिय शिष्यों में ऐसा कौन है जो व्याकरण समुद्र में पारङ्गत न हो, षट्दर्शन के तर्क से प्रतिवादियों पर विजय न प्राप्त करता हो, वचनरूपी धर्मशास्त्र से धर्ममार्ग में निरतिशय रूप से न चलाता हो तथा काव्य-सुधा के रस का पान करने वाले रसिकों में प्रतिष्ठा को न प्रात करता हो। इन विषयों में प्रसिद्धि प्राप्त करने वालों के भी नाम मिलते हैं ? आपकी करीब 20 रचनायें हैं जिनको सूचना हमें उनकी प्रशस्ति से मिलती हैं। वे रचनायें निम्न प्रकार हैं जो विविध विषयों पर लिखी गई हैं - 345