________________ प्रमेयसारूप्यप्रमाणवाद, आलोचनात्मक निर्विकल्पक प्रामाण्यवाद, विशेषणज्ञान प्रमाणवाद, विशेष्यज्ञानफलवाद, समवायसम्बन्धवाद, दिगम्बरों के अचेलकत्ववाद आदि विविधवादों का संक्षेप या विस्तार से खण्डन करके जैन श्वेताम्बरसम्मत सिद्धान्तों की पुष्टि की गई है। प्रकरणवश सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, कर्म, कर्मबन्ध, मोक्ष आदि का सविस्तार व्याख्यान किया गया है। प्राकृत पद्य में निबद्ध दर्शन-शास्त्र का यह एक अनूठा ग्रन्थ है। इसकी भाषा आचाराङ्ग आदि आगम ग्रन्थों की भाँति अतिकठिन न होकर सरल और मधुर है। यद्यपि विषय बहुत ही स्पष्ट रीति से समझाया गया है। परन्तु कहीं-कहीं प्रमेयकमलमार्तण्ड के विकल्पों की याद आ जाती है। कहीं-कहीं सरस साहित्यिक दृष्टान्तों से भी पदार्थ को स्पष्ट किया है। अन्त में ग्रन्थकार अपनी सामान्य प्रवृत्ति के अनुसार 'विरह' शब्द के साथ इस ग्रन्थ की भी समाप्ति करते हैं। सन्दर्भ सूची - 1. कहा जाता है कि बौद्धों का संहार करने के सङ्कल्प के प्रायश्चित्त के रूप में उनके गुरु ने हरिभद्र को 1444 ग्रन्थ लिखने की आज्ञा दी थी। इसका उल्लेख राजशेखरसूरि ने अपने चतुर्विंशतिप्रबन्ध और मुनि क्षमाकल्याण ने अपनी खरतरगच्छपट्टीवली में भी किया है। देखें, जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 3, पृ0 362-363 / विशेष के लिए देखें-धर्मसंग्रहणी प्रस्तावना-मुनि कल्याणविजय, पत्र 11 2. वही, पत्र 12-19 / जै. सा. बृ. इ. भाग-3, पृ0 362 में 72 ग्रन्थों की सूची दी गई है। 3. कुछ ग्रन्थ 50 श्लोक-प्रमाण (पञ्चाशक) हैं, कुछ 16 श्लोक-प्रमाण (षोडशक) और कुछ 20 श्लोकप्रमाण (बिंशिकाएँ) हैं / देखें-जे. सा. बृ.इ. भाग 3, पृ0 363 5. देखिए-धर्म. प्रस्तावना-पत्र 1-4. 6. वही, पत्र 23-34, जै. सा. बृ. इ भाग 3, पृ. 359-जैन परम्परा के अनुसार वि. सं0 585 (वीर सं0 1055, सन् 529) में हरिभद्र का देहावसान हो गया था। परन्तु हर्मन जैकोबी ने सन् 650 में होनेवाले धर्मकीर्ति के तात्त्विक विचारों से हरिभद्र को परिचित बतलाकर उपर्युक्त मान्यता का खण्डन किया है। सन् 779 (वि0सं0 835) को कुवलयमाला ग्रन्थ की समाप्ति करनेवाले उद्योतन ने हरिभद्र को गुरु माना है तथा कई ग्रन्थों के रचयिता के रूप में उल्लेख किया है। इसके आधार पर हरिभद्र को उद्योतन के कुछ समसमयवर्ती मानकर सन् 700-770 (वि0सं0 757-827) को मुनि जिनविजय जी स्वीकार करते हैं। 7. चक्कीदुगं हरियणगं पणगं चक्कीण केसवो चक्की / / केसव चक्की केसव दु चक्की केसव चक्कीय / / जै0 सा0 बृ0 50, भाग 3, पृ0 360 फुटनोट. 8. दुर्भाग्य से मुझे इस टीका का उत्तरार्ध ही प्राप्त हो सका। 9. आहरणं सेट्ठिदुर्ग जिणिदपारणगऽदाणदाणेसु / विहिनत्तिभावऽभावा मोक्खगं तत्थ विहिभत्ति / / वेसालिवासट्ठाणं समरे जिण पडिम सेट्ठिपासणया। अइभत्ति पारणदिणे मणोरहो अन्न हि पविसे / / धर्म0 10-11 10. मिच्छतं सेलकुलिसं अण्णाणतमोहभक्खरब्भूतं / चरणरयणायनिभं.................तिहुयणपसिद्धं / / धर्म 0 15-16 11. धारेइ दुग्गतीए पडतमप्पाणगं जतो तेणं। धम्मोत्ति सिवगतीइ व सततं धरणा समक्खाओ।। घम्माधम्मक्खयतो......हेतुम्मि फलोवयारोऽयं / / हेऊ उभयखयस्स य धम्मो जं तस्सभुज्जतो नियम। कुणइ तयं तदभावे तस्साणुट्ठाणवेफल्।। धर्म-20-22 तथा-23-26 12. जीवो अणादिणिहणोऽमुत्तोपरिणामि जाणओ कत्ता / मिच्छत्तादिक तस्स णियकम्मफलस्स भोत्ता उ।। 35 13. जम्हा ण कित्तिमो सो तम्हाऽणादीत्थ कित्तिमत्ते य (उ)। वत्तव्वं जेण कत्तो सो किं जीवो अजीवो त्ति।। जइ जीवो जेण कतो सो अन्नेणंति एवमणवत्था। चरमो अकित्तिमो अह सव्वेसु तु मच्छरो कोणु / / धर्म. 159-160 करणविरहा परमरिसिवयणतो भणितदोससब्भावा। तम्हा अणादिणिहणा जीवा सव्वेऽवि सिद्धमिणं / / धर्म. 191 343