________________ आत्मा के भोक्तृत्व की सिद्धि के बाद उसके सर्वज्ञत्व की सिद्धि में 238 गाथाएँ (1138-1375) हैं। सर्वज्ञता प्राप्ति के पूर्व वीतरागता आवश्यक है। वीतरागता के लिए भावधर्म का पालन करना आवश्यक है। अतः ग्रन्थकार ने सर्वज्ञत्व की सिद्धि के पूर्व जीव-भोक्तृत्व की सिद्धि के प्रकरण में ही जीव के कर्मबन्ध और भावधर्म का विवेचन करके तदुपरान्त प्राप्त होनेवाली वीतरागता और तज्जन्य सर्वज्ञता का निरूपण किया है। चूंकि ज्ञान आत्मा का गुण है और ज्ञान में हीनाधिकता पाई जाती है। अतः कहा जा सकता है कि कहीं-न-कहीं ज्ञान का अतिशय है और जहाँ ज्ञान की सर्वातिशयता है वहाँ सर्वज्ञता भी है। यह सर्वज्ञता जीव को छोड़कर अन्यत्र नहीं पाई जाती अतः ग्रन्थकार ने जीवविशिष्ट को सर्वज्ञ सिद्ध किया है। इस प्रकरण में ग्रन्थकार ने सर्वप्रथम अन्य प्रकरणों की तरह सर्वज्ञ का स्वरूप न लिखकर वीतरागता और सर्वज्ञत्व को स्वीकार न करनेवाले मीमांसकों के पूर्वपक्ष को उपस्थित करते हुए लिखा है कि रागादि, ज्ञानादि की तरह आत्मा के धर्म हैं फिर कैसे उनके नाश से वीतरागता आ सकती है ? जब वीतरागता नहीं बन सकती तो सर्वज्ञता कैसे सम्भव है ? इसी प्रकरण में मीमांसक प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा सर्वज्ञ की सिद्धि का अभाव सिद्ध करते हुए सर्वज्ञकृत आगम को भी सदोष सिद्ध करते हैं। इसके उपरान्त ग्रन्थकार उत्तरपक्ष में मीमांसकों का खण्डन करते हुए सर्वज्ञ की सिद्धि करते हैं। सर्वप्रथम अनादिमान् रागादि के देशक्षय-दर्शन से प्रतिपक्ष की भावना द्वारा सर्व क्षय की सम्भावना को उपस्थित किया है। इसके उपरान्त भावनादि का वर्णन करते हुए ज्ञानादिक को रागादि का प्रतिपक्षी सिद्ध किया है। इसके बाद जल और ज्वलन (दीपक) के दृष्टान्त से आत्मा को एकान्त से विनाशरूप मानने वालों का खण्डन किया है। तदुपरान्त क्षीण रागादि के पुनर्बन्ध का अभाव, उसका कारण, नैरात्म्य भावना को रागादि के विनाश का निमित्त मानने वाले बौद्धों का खण्डन, धर्म-धर्मी में एकता, चेष्टा से वीतरागता का निर्णय, प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा ही सर्व वस्तुज्ञानोत्पत्ति की साधनता, आवरण का अभाव होने पर जीव की सर्वज्ञता, माँस आदि अशुचि पदार्थों का ज्ञान होने पर भी सर्वज्ञत्व में अपवित्रता का खण्डन, व्यवहार और निश्चयनय से सर्वज्ञज्ञान का निरूपण, आगम से सर्वज्ञ की सत्ता का ज्ञान, आगम के प्रामाण्य की व्यवस्था, नित्य आगम को माननेवाले मीमांसकों का खण्डन करके कथञ्चित् नित्य आगम की व्यवस्था, आगम की पुरुषप्रणीतता, वेद के स्वतः प्रामाण्य का खण्डन, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सर्वज्ञप्रतिषेधकता का खण्डन, सर्वज्ञप्रतिषेधक प्रमाण में दृष्टान्त की संदिग्ध साध्यता, अतीन्द्रियार्थ प्रतिपादक वैद्यक और ज्योतिषादि शास्त्रों की अन्यथानुपपत्ति से सर्वज्ञसिद्धि, केवलज्ञान की त्रिकालवस्तुविषयता, वस्तु के द्रव्य-पर्यायात्मकत्व की सिद्धि, केवलज्ञान की स्फुटता, केवलज्ञान और दर्शन में साकारता और अनाकारता को लेकर पार्थक्य निरूपण, विषयबिम्बसंक्रमणादि से साकारता मानने वालों का खण्डन, केवलज्ञान के सर्वगतत्त्व का खण्डन क्योंकि केवलज्ञान आत्मस्थ होकर ही सभी पदार्थों को जानता है, केवलज्ञान के उत्पत्तिकाल में ही सर्व पदार्थों के जानने के सामर्थ्य का समर्थन, कुछ आचार्यों के मत से केवलज्ञान के सर्वगतत्त्व का समर्थन, केवलज्ञान और केवलदर्शन के युगपद् उपयोगवादी वादिसिद्धसेन का मत और उसका जिन भद्रगणिक्षमाश्रमण के अनुसार खण्डन, केवलज्ञान और दर्शन में अभेद माननेवालों का खण्डन, जिनेन्द्र देव के ही सर्वज्ञत्व का समर्थन, सर्वज्ञत्व के सिद्ध हो जाने पर आगम के छिन्नमूलादि दोषों का खण्डन आदि विविध विषयों का वर्णन है। इसके उपरान्त ग्रन्थकार 21 गाथाओं ( 1376-1366 ) द्वारा ग्रन्थ की परिसमाप्ति के पूर्व सम्यग्दर्शनादि रूप भावधर्म के निर्वाणरूप फल का वर्णन करते हैं। क्योंकि प्रेक्षावानों की प्रवृत्ति फलप्राप्ति की आशा से ही होती है। इसी प्रकरण में मोक्षसुख की नित्यता और मोक्षसुख की अनुपमता में कन्याद्वय का सटीक दृष्टान्त दिया गया है। इसके बाद हमेशा जीवों के मोक्ष जाते रहने पर भी भव्यजीवों के उच्छेद की शंका का खंडन किया है अन्त में सम्पूर्ण ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए ग्रन्थकार ने इसकी संक्षिप्तता और भव्यों के प्रति दुःख-विमोक्ष की भावना से जिनधर्म की सम्बोधि प्राप्ति के लिए मङ्गलकामना की है। उपसंहार - इस तरह सम्पूर्ण ग्रन्थ में धर्म-निर्वचन के माध्यम से जीव की सत्ता उसकी अनादिनिधनता, अमूर्त्तता, परिणामिता, ज्ञातृता, कर्तृता, भक्तृता, सर्वज्ञता अदि की सिद्धि के साथ नित्यैकान्तवाद, अनित्यैकान्तवाद, जगत्कर्तृत्ववाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, अज्ञानवाद, वेद के स्वत:प्रामाण्यवाद, वैदिक अहिंसावाद, आगम के अपौरुषेयवाद, निर्विकल्पकज्ञानवाद, विषयबिम्बसंक्रमणवाद, अवीतरागतावाद, कर्मफलप्रेरकत्ववाद, विज्ञानवाद, ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद, 342