Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 361
________________ वेदनीयादि कर्म विपाक के अनुभवरूप क्रिया ही कर्मभोग क्रिया कही जाती है तो लोक में अङ्गनादि के सम्बन्ध होने पर ही यह भोक्ता है ऐसी प्रसिद्धि क्यों है ? इसका उत्तर देते हुए ग्रन्थकार ने लिखा है कि वह स्वकृत कर्मविपाक वेदनरूप क्रिया प्रायः स्रक्-चन्दन-अङ्गना आदि सहकारिकारण के सान्निध्य से देखी जाने के कारण लोकव्यवहार ऐसा होता है। इससे कर्मविपाक के अनुभव रूप आत्मपरिणति को भोक्तृता मानने में कोई दोष नहीं है। इसी प्रसङ्ग में ग्रन्थकार ने ईश्वर को कर्म फल देने में प्रेरक कारण स्वीकार करनेवालों का भी खण्डन किया है तथा लोक आदि के द्वारा जीव की भोक्तृता को पुष्ट किया है। इसके उपरान्त ग्रन्थकार जीव का ( सुख-दुःख देनेवाले ) कर्मों के साथ सम्बन्ध बतलाने के लिए कर्म का स्वरूप, कर्म का अमूर्तिक जीव के साथ सम्बन्ध, मूर्त कर्म के द्वारा अमूर्त जीव के उपघात और अनुग्रह का समर्थन, संसारी जीव के सर्वथा अमूर्त्तत्व का निषेध, अमूर्तकर्मवादियों का खण्डन, देह-आत्मा का सम्बन्ध, बाह्यार्थ का खण्डन करनेवाले विज्ञानवादियों के पूर्व पक्ष को उपस्थित कर उसका खण्डन, परमाणु का स्वरूप, अवयवी का स्वरूप, अवयवी की सिद्धि, भ्रमात्मक ज्ञान से भी बाह्यार्थ की सिद्धि, अभाव को एकान्ततः तुच्छ माननेवाले धर्मकीर्ति आदि बौद्धों का खण्डन, ज्ञान की साकारता, अन्यथानुपपत्ति से बाह्यार्थसिद्धि, बुद्ध की दानपारमिता अन्यथानुपपत्ति से बाह्यार्थ की सिद्धि, कर्म के मूर्तिकपने की सिद्धि, आठों कर्मों की उत्कृष्ट एवं जघन्य स्थिति आदि का प्रतिपादन किया है। इस प्रकार संक्षेप से जीव का कर्म के साथ सम्बन्ध बतलाने के बाद ग्रन्थकार ग्रन्थ के आदि में निर्दिष्ट भावधर्म का प्रतिपादन करते हैं। सर्वप्रथम भावधर्म का स्वरूप बतलाते हुए लिखा है-सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र रूप जो मोक्षमार्ग भगवान् जिनेन्द्र ने बतलाया है वही भावधर्म है। इसी प्रकरण में भावधर्म के मूलभूत सम्यक्त्व की प्राप्ति का प्रकार, सम्यक्त्वादि गुण से रहित जीव के बन्ध अधिक और निर्जरा कम होने पर भी ग्रन्थिभेद का समाधान, अनन्तभव-भावित संसार के होने पर भी सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद शीघ्र विनाश में युक्ति, सभी जीवों के ग्रन्थिभेद में वीर्योत्कर्ष की निमित्तता का निषेध, दैव और पुरुषार्थ की तुल्यबलवत्ता, ग्रन्थिभेद की कष्टसाध्यता, जिस प्रकार सम्यक्त्व विहीन जीव बहुत कर्मस्थिति का क्षय कर देता है उसी प्रकार शेष अल्प कर्म स्थिति को क्यों नहीं नष्ट कर देता? इसके लिए दर्शनादि की क्या आवश्यकता है? इस शंका का समाधान, प्रवृत्त-अपूर्व-अनिवृत्तिरूप करणत्रय का निरूपण, सम्यक्त्व के क्षयोपशमिकादि भेदों का निर्वचन, कारक और दीपकसम्यक्त्व का निर्वचन, निसर्गरुचि और आज्ञारुचि आदि 10 प्रकार के सम्यक्त्व का क्षयोपशमिकादि सम्यक्त्व में अन्तर्भाव, निश्चय नय से सम्यक्त्व और मौन में अभेद होने पर भी व्यवहार नय से दोनों में पार्थक्य, आभिनिबोधिक आदि 5 ज्ञानों का वर्णन, ज्ञप्तिस्वभाव से ज्ञान के ऐक्य का खण्डन, ज्ञानों के पार्थक्य में स्थूलनिमित्तता, पाँच से अधिक ज्ञानों का खण्डन, क्षीणावरणवाले केवलियों के आभिनिबोधिक (मतिज्ञान) ज्ञान के प्रसङ्ग का खण्डन, केवलज्ञानावरण के प्रति समय प्रदेशतः क्षय होने पर भी चरम समय में ही केवलज्ञान की उत्पत्ति का समर्थन, ज्ञानों के क्रमश: कथन का प्रयोजन, चारित्र का स्वरूप-निर्वचन, श्रमणों के 6 मूलगुणों (अहिंसादि 5 महाव्रत और रात्रिभोजनत्याग) का सविस्तार कथन, वेदविहित हिंसा की निर्दोषता का खण्डन, जैन मन्दिर (जिनायतन) की तरह वेदविहित हिंसा की निर्दोषता का खण्डन, जिनायतन के विशिष्ट गुणसाधकपने का प्रदर्शन, वेदविहितहिंसा में सत्फल और वध्य के उपकार का अभाव, वेदमन्त्र के साथ भी की गई हिंसा में व्यभिचार आदि दोषों का वर्णन, स्वनिन्दा में हेतुभूत मृषावाद की अदुष्टता का खण्डन, ऐकान्तिक पक्ष का खण्डन करके अनेकान्तवाद की सत्यता की स्थापना, अवधारणपूर्वक वचनत्याग का उपदेश, पर-पीडाकारक सत्यवाणी में भी मिथ्यापना, वाणिज्य की तरह चोरी को भी निर्दोष माननेवाले स्कन्द-रुद्र आदि के अनुयायिओं के मत का पूर्वपक्षपूर्वक खण्डन, स्त्रीसेवा को निर्दोष मानने वालों का युक्ति और प्रमाण से पूर्वपक्षपूर्वक खण्डन, रत्नत्रय (बुद्ध, धर्म और सङ्घ) की वृद्धि में हेतुभूत ग्रामादि के परिग्रह को अदुष्ट माननेवाले बौद्धों का पूर्वपक्षपूर्वक खण्डन, वस्त्रादि (खण्ड, पात्र आदि) धर्म के उपकरणों को भी परिग्रह मानने वाले दिगम्बरों (वोटिकों) के मत का पूर्वपक्षपूर्वक खण्डन, वस्त्रादि के ग्रहण से संयम की उपकारता का समर्थन, वस्त्रादि के धारण करने पर भी निर्ग्रन्थता का समर्थन, 'जिनलिङ्ग ही जिनके शिष्यों द्वारा आदरणीय है' ऐसा माननेवाले दिगम्बरों को सयुक्तिक शिक्षा, रात्रिभोजनत्याग में प्रत्यक्ष और परोक्ष फल की सिद्धि, आदि विविध विषयों का सविस्तार वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त पिण्डविशुद्धि आदि श्रमणों के उत्तर गुणों को अन्य आगम ग्रन्थों से देखने का मात्र सङ्केत किया है। श्वेताम्बर लेखक द्वारा रचित होने से दिगम्बरत्व का खण्डन किया गया है। वीतराग-सर्वज्ञसिद्धिद्वार - 341

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