________________ में प्रवृत्ति कराने के लिए भव्यों के प्रति उपदेश दिया है। तदनन्तर धर्म शब्द की निरुक्ति बतलाते हुए मोक्ष के प्रति धर्म का असाधनता का निराकरण किया है। इसके बाद (27-33) नामधर्म, स्थापनाधर्म, द्रव्यधर्म, क्षेत्रधर्म, कालधर्म भावधर्म के भेद से धर्म के छह भेदों का स्वरूप बतलाया है। तत्पश्चात्, (34) ग्रन्थ की सङ्गति बतलाते हुए जीव और कर्मयोग का श्रुतानुसार वर्णन करने की प्रतिज्ञा करते हैं। जीव के स्वरूप को बतलाते हुए सर्वप्रथम ग्रन्थकार अनादिनिधन, अमूर्तीक, परिणामी, कर्ता और कर्मफलभोक्ता के रूप में जीव को प्रदर्शित करते हैं। इसके बाद जीव में उपर्युक्त गुणों की सत्ता सिद्ध करने के पूर्व जीव के अस्तित्त्व को पृथिव्यादि से पृथक् न मानने वाले भौतिकवादियों के पूर्वपक्ष को उपस्थित करके उसका वहन करते हुए जीव की सत्ता सिद्ध करते हैं क्योंकि जब तक सामान्य जीव का अस्तित्त्व सिद्ध नहीं हो जाता है तब तक उसके विशेषगुणों का साधन कैसे हो सकता है। भौतिकपुरुषवादीमत-परीक्षाद्वार 123 गाथाओं (36-185) वाले इस प्रकरण में सर्वप्रथम भौतिक पदार्थों से भिन्न जीव के अस्तित्त्व को स्वीकार न करनेवाले भौतिकवादियों (चावकों) के पक्ष को पूर्व पक्ष के रूप में उपस्थित करते हैं। इस प्रसङ्ग में प्रत्यक्षादि प्रमाण और अभाव-प्रमाण आदि से जीव के स्वतन्त्र अस्तित्त्व का खण्डन करते हुए जाति-स्मरण, स्तनपानाभिलाषा आदि से जीव के अस्तित्त्व को सिद्ध करनेवाले आस्तिकों का खण्डन भी किया गया है (36-43) / तत्पश्चात् भौतिकवादियों के मत का खण्डन करते हुए ग्रन्थकार सर्वप्रथम अवग्रहादि आत्मगुणों को अनुभवसिद्ध बतलाते हैं। तदनन्तर बुद्धि को अप्रत्यक्ष माननेवाले मीमांसकों का निराकरण करके उसके प्रत्यक्षत्व को सिद्ध किया है। यहीं पर ज्ञान को ज्ञानान्तरवेद्यस्वीकार करनेवाले नैयायिकों के मत का भी खण्डन किया गया है। इसी प्रकार आत्मा के अप्रत्यक्षत्व साधन में प्रयुक्त युक्तियों का, चैतन्य के भूतधर्मत्व का, भूतकार्यत्व का, शरीरजन्यत्व का, चार्वाक द्वारा उपस्थित 'तद्भावे तद्भावात्' इस हेतु का और मद्यदृष्टान्त का खण्डन किया है। इसके बाद अनुमान आदि प्रमाण से जीव के अस्तित्त्व को सिद्ध करते हुए आत्मप्रतिषेधक भावात्मक प्रमाणों के अभाव का प्रतिपादन किया है। इसके अतिरिक्त यथाप्रसङ्ग मीमांसकाभिमत आलोचनात्मक निविकल्पक ज्ञान के प्रामाण्य का निराकरण, नैयायिक-वैशेषिकाभिमत 'विशेषण-ज्ञान प्रमाण है और विशेष्यज्ञान फल' इस मत का खण्डन, सौगत विशेषाभिमत ज्ञान के प्रमेयसारूप्यप्रमाणवाद का खण्डन, गौणवृत्ति से भी ज्ञान ही प्रमाण है इस मत का खण्डन, 'विज्ञानघन' इत्यादि पदों का यथार्थ व्याख्यान, परलोक शब्द की व्याख्या, आत्मा के परलोकगमन आदि की सिद्धि भी की गई है। अनादिनिधनत्वद्वार जीव के अस्तित्त्व को सिद्ध करने के अनन्तर ग्रन्थकार 33 गाथाओं (156-191) द्वारा अनादिनिधनत्वद्वार में जीव के अनादिनिधनत्व में कारण उपस्थित करते हुए उसकी कृत्रिमता में दूषण देते हैं। इसी प्रसङ्ग में ग्रन्थकार ईश्वर के जगत्-कर्तृत्व का भी खण्डन करते हैं। जगत्कर्तृत्व के खण्डन में ग्रन्थकार ने अनवस्था, प्रयोजनाभाव, प्रमाणाभाव, असुन्दरता, संसार की अनादिता, ईश्वर की आदिमत्ता, युक्तिविरहता, विचित्र जीवों के निर्माण का अभाव, मध्यस्थता का अभाव, जगन्निर्माण की असमर्थता, ईश्वर के भी कर्मफलवेदन के प्रसङ्ग की प्राप्ति आदि नाना प्रकार के दोषों को उपस्थित किया है। अमूर्तत्त्वद्वार जीव के अनादिनिधनत्व को सिद्ध करने के अनन्तर ग्रन्थकार जीव के अमूर्त्तत्व की सिद्धि केवल दो गाथाओं (192-193) द्वारा ही करते हैं। इस प्रसङ्ग में जीव के अमूर्त्तत्व को सिद्ध करते हुए लोकप्रसिद्धि को भी हेतु रूप से उपस्थित किया है। परिणामित्वद्वार - जीव के अमूर्तत्व को सिद्ध करने के उपरान्त उसके परिणामित्व को 282 गाथाओं ( 194-475) द्वारा सिद्ध किया गया है। इस प्रसङ्ग में ग्रन्थकार ने सर्वप्रथम सुखादियोग की अन्यथानुपपत्ति रूप हेतु से जीव के परिणामी स्वभाव को सिद्ध किया है। अर्थात् सर्वथा एकान्त, नित्य और अनित्य पक्ष में सुख-दुःखादि का उचित सम्बन्ध सम्भव नहीं है। अत: जीव को परिणामी मानना आवश्यक है। यदि एकान्त से नित्य माना जावेगा तो जीव जब सुखी होगा तो उसके कभी भी सुख का अभाव नहीं होगा और यदि दुःखी होगा तो उसके दुःख का कभी अभाव भी नहीं होगा, यदि युगपत् 339