________________ 14. देखें, शिलालेख नं0 105, 224, शिलालेख संग्रह पृ0 200 15. देखें, नयनन्दि का सुदंसणचरिउ। 16. देखें, प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा प्रमेयरत्नमाला। 17. देखें, नयनन्दि क सुदंसणचरिउ। 18. देखें, प्रमेयकमलमार्तण्ड के आदि व अन्तिम प्रशस्ति-पद्य। 19. देखें, प्रमेयरत्नमाला कारिका 2 20. देखें, प्रो० दरबारीलाल कोठिया, परीक्षामुख की प्रस्तावना, पृष्ठ 29 आचार्य हरिभद्रसूरि और उनकी धर्मसंग्रहणी समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान आदि सरस और मनोरंजक आख्यानप्रधान ग्रन्थों, अनेकान्तजयपताका, षड्दर्शनसमुच्चय, योगबिन्दु, शास्त्रवार्तासमुच्चय आदि प्रसिद्ध दार्शनिक मौलिक ग्रन्थों तथा आवश्यक, दशवैकालिक आदि आगमों पर व्याख्यात्मक साहित्य के लेखक श्री आचार्य हरिभद्रसूरि ही इस 'धर्मसंग्रहणी' ग्रन्थ के रचयिता हैं। इन्होंने सरस कथासाहित्य के अलावा दर्शनशास्त्र पर भी अपूर्व पाण्डित्य प्राप्त किया था। ये बड़े मेधावी और विचारशील लेखक थे। श्री राजशेखरसूरि ने इन्हें 1444 प्रकरणों का रचयिता माना है। परन्तु वर्तमान में न तो इन सभी ग्रन्थों की उपलब्धि है और न उनके नामादि का ठीक-ठीक परिज्ञान / आज इनके जिन ग्रन्थों के नाम सुनने में आते हैं, वे निम्नोक्त (1) अनुयोगद्वारलघुवृत्ति, (2) अनेकान्तजयपताका (स्वोपज्ञटीकासहित), (3) अनेकान्तप्रघट्ट, (4) अनेकान्तवादप्रवेश, (5) अर्हच्छ्रीचूडामणि, (6) अष्टकप्रकरण, (7) आवश्यकटीका, (8) आवश्यकबृहट्टीका, (6) उपदेशपदानि, (10) उपदेशप्रकरण, (11) ओघनियुक्तिवृत्ति, (12) कथाकोश, (13) कर्मस्तववृत्ति, (14) कुलकानि, (15) क्षमावल्लीबीज, (16) क्षेत्रसमासवृत्ति, (17) चैत्यवन्दनभाष्य (संस्कृत), (18) चैत्यवन्दनवृत्ति, (16) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका, (20) जम्बूद्वीपसंग्रहणी, (21) जीवाभिगमलघुवृत्ति, (22) ज्ञानपञ्चकविवरण, (23) तत्त्वतरङ्गिणी, (24) तत्त्वार्थलघुवृत्ति, (25) त्रिभङ्गीसार, (26) दर्शनशुद्धिप्रकरण, (27) दर्शनसप्ततिका, (28) दशवैकालिकलघुवृत्ति, (29) दशवैकालिकबृहवृत्ति, (30) दिनशुद्धि, (31) देवेन्द्रनरेन्द्रप्रकरण, (32) द्विजवदनचपेटा, (33) धर्मबिन्दु, (34) धर्मलाभसिद्धि, (35) धर्मसंग्रहणी, (36) धर्मसार, (37) धूर्ताख्यान, (38) ध्यानशतकवृत्ति, (39) नन्दी-अध्ययनटीका, (40) नानाचित्रप्रकरण, (41) न्यायप्रवेशटीका, 342) न्यायविनिश्चय, (43) न्यायावतारवृत्ति, (44) पञ्चनियंठी, (45) पञ्चलिङ्गी, (46) पञ्चवस्तुकप्रकरण (स्वोपज्ञटीकासहित), (47) पञ्चसूत्रविवरण, (48) पञ्चस्थानक, (49) पञ्चाशक, (50) परलोकसिद्धि, (51) पिण्डनियुक्तिवृत्ति, (52) प्रज्ञापनप्रदेश व्याख्या, (53) प्रतिष्ठाकल्प, (54) बृहन्मिथ्यात्वमथन, (55) मुनिपतिचरित्र, (56) यतिदिनकृत्य, (57) यशोधरचरित्र, (58) योगदृष्टिसमुच्चय, (59) योगबिन्दु, (60) योगशतक, (61) योगविंशति, (62) लग्नकुण्डलिका, (63) लग्नशुद्धि, (64) लघुक्षेत्रसमास, (65) लघुसंग्रहणी, (66) लोकतत्त्वनिर्णय, (67) लोकबिन्दु, (68) विंशिका, (69) वीरस्तव, (70) वीराङ्गदकथा, (71) वेदबाह्यतानिराकरण, (72) व्यवहारकल्प, (73) शास्त्रवार्तासमुच्चय (स्वोपज्ञटीकासहित), (74) श्रावक प्रज्ञप्तिवृत्ति, (75) श्रावकधर्मतन्त्र, (76) षड्दर्शनसमुच्चय, (77) षड्दर्शनी, (78) षोडशक, (79) संकितपञ्चासी, (80) संग्रहणीवृत्ति, (81) सपञ्चासित्तरी, (82) संबोधसित्तरी, (83) संबोधप्रकरण, (84) संसारदावास्तुति, (85) संस्कृतात्मानुशासन, (86) समराइच्चकहा, (87) सर्वज्ञसिद्धि (टीकासहित), (88) स्याद्वादकुचोद्यपरिहार / / इस तरह इनमें कुछ तो मौलिक ग्रन्थ हैं और कुछ व्याख्यात्मक। उनमें भी कुछ सरस साहित्यिक, कुछ दार्शनिक, कुछ चरितात्मक, कुछ स्तोत्रात्मक आदि हैं। हरिभद्र नाम के कई आचार्य हुए हैं परन्तु उनमें धर्मसंग्रहणीकार सबसे प्राचीन हैं और जैन आगमों के प्राचीन टीकाकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। आपका समय कोई वि0 श09-10 मानते हैं और कुछ वि० श06-7 मानते हैं। श्री कल्याणविजय जी ने द्वितीय मत का (वि0 श0 6-7) बड़े ऊहापोह के साथ समर्थन किया है। आपका जन्म राजस्थान (मेवाड़) के चित्रकूट (चित्तौड़) नगर में हुआ था। आपने अपना जीवन विशेष रूप से राजपूताना और गुजरात में ही 337