________________ (ग) न्यायसूत्र, न्यायविन्दु और परीक्षामुख-यद्यपि परीक्षामुख में धर्मकीर्ति के न्यायबिन्दु, दिङ्गनाग के न्यायप्रवेश और गौतम के न्यायसूत्र का प्रभाव परिलक्षित होता है तो भी परीक्षामुख के सूत्र न्यायविन्दु आदि की अपेक्षा अल्पाक्षर और अर्थगर्भ हैं। न्यायसूत्र और न्यायबिन्दु में प्रमाणसामान्य का कोई लक्षण उपलब्ध नहीं है, केवल उसके भेदों को गिना दिया गया। है। पर परीक्षामुख में प्रमाणसामान्य का लक्षण तथा उसके भेद दोनों उपलब्ध हैं। इसी तरह न्यायसूत्र में सव्यभिचार हेत्वाभास का लक्षण करते समय उसका पर्यायवाची ही शब्द रखा गया है। जिससे उसका लक्षण स्पष्ट नहीं हो सका है। जब कि परीक्षामुख में उसका लक्षण स्पष्ट मिलता है। इससे प्रकट है कि परीक्षामुख न केवल जैन न्यायविद्या का एक अपूर्व ग्रन्थ है, अपितु भारतीय न्याय शास्त्र-गगन का वह एक प्रकाशमान नक्षत्र है। ग्रन्थकार परीक्षामुख के कर्ता कौन हैं और उनका समय एवं परिचय क्या है ? आदि प्रश्नों का यहाँ उठना स्वाभाविक है। अत: उन पर यहाँ संक्षिप्त विचार किया जा रहा है। इस महत्त्वपूर्ण जैन न्यायसूत्र ग्रन्थ के कर्ता आचार्य माणिक्यनन्दि हैं, जिनका उल्लेख एवं स्मरण शिलालेखों4 और समवर्ती एवं उत्तरवर्ती साहित्यिक रचनाओं में किया गया है। उनके समकालीन आचार्य नयनन्दि (वि0 की 11 वीं शती) ने उन्हें 'महापण्डित' और 'तर्ककुशल लिखा है।" प्रभाचन्द्र और अनन्तवीर्य जैसे उनके समर्थ टीकाकार तो उनकी प्रशंसा करते हुए नहीं अघाते हैं। प्रभाचन्द्र कहते हैं कि उनके चरणप्रसाद से ही उन्हें जैन न्यायशास्त्र तथा अजैनन्यायशास्त्र का ज्ञान हुआ है, जिसके वे समुद्र हैं। अनन्तवीर्य 'नमो माणिक्यनन्दिने' जैसे सम्मान-सूचक शब्दों द्वारा उनके प्रति अत्यधिक आदर एवं श्रद्धा व्यक्त करते हैं। इससे मालूम पड़ता है कि माणिक्यनन्दि तर्कशास्त्र के पण्डित तो थे ही, अन्य शास्त्रों के भी वे मर्मज्ञ थे। इनका समय प्रो० दरबारीलाल जी कोठिया ने ऊहापोह के साथ विक्रम की 11 वीं शताब्दी (ई. सन् 1028) निर्णीत किया है और अनेक आधारों से माणिक्यनन्दि और उनके आद्य टीकाकार प्रभाचन्द्र में गुरु-शिष्य का सम्बन्ध सिद्ध किया है। सन्दर्भ - 1. प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः। इति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्म सिद्धमल्पं लघीयसः / / 1 / / 2. परीक्षामुखमादर्श हेयोपादेयतत्त्वयोः। संविदे मादृशो बालः परीक्षादक्षवद्व्यधाम् // 2 // 3. 'गम्भीरं निखिलार्थगोचरमलं शिष्यप्रबोधप्रदम्। यद्वयक्तं पदमद्वितीयमखिलं माणिक्यनन्दिप्रभोः / / 3. 'अकलङ्कवचोम्भोधेरुद्दधै येन धीमता। न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने / प्रमेयरत्नमाला श्लो0 2 आचार्य प्रभाचन्द्र ने भी प्रमेयकमलमार्तण्ड के प्रारम्भ में कहा है 'श्रीमदकलङ्कार्थोऽव्युत्पन्नप्रज्ञैरवगन्तुं न शक्यत इति तद्व्युत्पादनाय करतलामलक वत् तदर्थ मुद्धत्य प्रतिपादयितु - कामस्तत्परिज्ञानाऽग्रनुहेच्छाप्रेरितस्तदर्थप्रतिपादनप्रवणं प्रकरणमिदमाचार्यः प्राह। 5. इस सम्बन्ध में प्रो० दरबारीलालजी कोठिया का वह शोधपूर्ण निबन्ध द्रष्टव्य है जो अनेकान्त (वर्ष 5, किरण 3, 4) तथा आप्तपरीक्षा की प्रस्तावना में प्रकाशित है। उन्होंने इसमें 7 ग्रन्थों की तुलना द्वारा परीक्षामुख के मूल-स्रोतों की खोज प्रस्तुत की है। 6. विशेष-प्रमेयकमलमार्तण्ड-भूमिका-पं0 महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य। 7. विशेष जानकारी के लिए तत्तत् ग्रन्थों का तथा प्रो० दरबारीलाल जी के प्रबन्ध का (हीरकजयन्ति-कानजीस्वामी-अभिनन्दनग्रन्थ, पृष्ठ 300) अवलोकन करें। 8. न्यायदीपिका (सम्पादन तथा हिन्दी अनुवाद-प्रो.दरबारीलाल कोठिया) पृष्ठ-26, 27, 33, 34, 52, 73, 74, 80, 99 आदि। 9. 'तथा चाह भगवान् माणिक्यनन्दिभट्टारक:'-न्यायदीपिका, पृष्ठ-120 10. क्रमशः द्रष्टव्य सूत्रों की संख्या-(क) प्रमा. नय. 1.3 तथा 2.2, परीक्षा 1.2 तथा 2.3 11. विशेष के लिए देखें, पं0 वंशीधरजी व्याकरणाचार्य का इस विषय का लेख, जैन सिद्धान्तभास्कर, भाग 2, कि. 1,2 12. अनैकान्तिक: सव्यभिचारः।-न्यायसूत्र 1.2 13. 'विपक्षेऽप्यविरुद्धवृत्तिरनैकान्तिकः'।-परीक्षामुख 6.30 336