________________ (3) श्वेताम्बरों के अनुसार दृष्टिवाद को छोड़कर शेष अङ्ग और अङ्ग बाह्य आगम सुरक्षित हैं जबकि दिगम्बर परम्परा में दृष्टिवाद का अशांश ही सुरक्षित है, शेष लुप्त हो गया है। (4) श्वेताम्बरों के यहाँ 45 आगम मान्य हैं जबकि दिगम्बरों में बारह अङ्ग और चौदह अङ्गबाह्य / बारह उपाङ्गों का उल्लेख न तो दिगम्बर साहित्य में है और न श्वेताम्बरों के नन्दिसूत्र में है। दिगम्बरों ने मूल आगम लुप्त मानकर परवर्ती आचार्यों की कुछ रचनाओं को आगम की मान्यता दी है। उनमें प्रमुख हैं कसायपाहुड और छक्खण्डागम। यह एक विस्मयकारी तथ्य है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों के साहित्य में वीर निर्वाण संवत् 355 (ईसा पूर्व 172) में उड़ीसा में कुमारी पर्वत पर हुई वाचना को अनदेखा किया गया है। यह जैन श्रुत आगम दशाङ्ग के वाचन का सर्व प्राचीन उल्लिखित अभिलेखीय प्रमाण है। इस सम्बन्ध में The Hathigumpha Inscription of Kharavela and the Bhabru Edict ofAsoka--ACritical Study द्रष्टव्य है / परीक्षामुख : एक अनुशीलन तत्त्वार्थ के प्रतिपादन में जो स्थान जैन-धर्म के तत्त्वार्थसूत्र का, ब्रह्मविद्या के प्रतिपादन में ब्रह्मसूत्र का, योगशास्त्र के विवेचन में पातञ्जल-योगसूत्र का और न्यायशास्त्र के न्याय-निर्णय में गौतम के न्यायसूत्र का है, वही स्थान एवं प्रसिद्धि जैन न्याय के आद्य सूत्र ग्रन्थ परीक्षामुख का भी है। कहीं-कहीं पर परीक्षामुख के सूत्र गौतम के न्यायसूत्र से अधिक लघु, तर्कसङ्गत एवं सुस्पष्ट अर्थ से समन्वित दृष्टिगोचर होते हैं। विषय-परिचय - परीक्षामुख में मुख्यरूप से प्रमाण और प्रमाणाभास का 212 सूत्रों द्वारा, जो 6 परिच्छेदों में विभक्त हैं, विशद एवं तर्कसङ्गत चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। ग्रन्थारम्भ में एक कारिका द्वारा प्रतिपाद्य विषय और ग्रन्थ-निर्माण का प्रयोजन बताया गया है। तथा ग्रन्थ-परिसमाप्ति के अवसर पर भी एक कारिका दी गई है, जिसमें 'बाल' शब्द से अपनी अल्पज्ञता एवं विनयशीलता का परिचय देते हुए परीक्षामुख को हेयोपादेय तत्त्व का निर्णय करने के लिए एक दर्पण बताया गया है। ग्रन्थ में विषय-प्रतिपादन इस प्रकार हुआ है - 1. प्रथम परिच्छेद में 13 सूत्रों द्वारा प्रमाण के स्वरूप तथा उसके प्रामाण्य का निश्चय किया गया है। 2. द्वितीय परिच्छेद में सर्वप्रथम प्रमाण के दो भेद करके प्रत्यक्ष के मुख्य और सांव्यवहारिक दोनों भेदों का विचार 12 सूत्रों में किया गया है। 3. तृतीय परिच्छेद में परोक्ष प्रमाण के पाँचों भेदों (स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और मागम) का विवेचन 101 सूत्रों में किया गया है। इसमें न्याय के प्रमुख अङ्ग अनुमान का विशाल वंशवृक्ष भी समुपस्थित किया गया है। अतः यह परिच्छेद सबसे बड़ा हो गया है। 4. चतुर्थ परिच्छेद में 9 सूत्रों द्वारा प्रमाण का विषय सामान्य-विशेषात्मक वस्तु को बतलाकर उसका सभेद वर्णन प्रस्तुत किया गया है। 5. पञ्चम परिच्छेद में केवल 3 सूत्र हैं, जिनमें प्रमाण के उभयविध फल (1) साक्षातफल अज्ञाननिवृत्ति तथा (2) परम्पराफल-हानोपादानोपेक्षाबुद्धि) को कहकर उसे प्रमाण से कथञ्चित् / भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न बतलाया गया है। 6. षष्ठ परिच्छेद में प्रमाणाभासों (स्वरूपाभास, संख्याभास, विषयाभास और फलाभास) का सविस्तृत विवेचन उपलब्ध है। अन्त में जय-पराजय आदि की भी जैन दृष्टि से व्यवस्था की गई है। इस परिच्छेद में कुल 74 सूत्र हैं। इस तरह इस परीक्षामुख में जैन न्याय के प्रायः सभी मौलिक विषयों पर प्राञ्जल एवं विशद भाषा में बड़ी कुशलतापूर्वक प्रकाश डाला गया है। इसीसे सम्भवतः आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपनी टीका में परीक्षामुख को गम्भीर, निखिलार्थ प्रकाशक, निर्मल, शिष्य-प्रबोध-प्रद एवं अद्वितीय रचना कहा है। उद्गम - इस परीक्षामुख को आचार्य अकलङ्क के वचनरूपी समुद्र से मथकर निकाला गया न्यायविद्यामृत कहा गया है।' वस्तुतः परीक्षामुख का मूल उद्गम-स्रोत आचार्य अकलङ्क के न्याय-ग्रन्थ (अष्टशती, लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह एवं सिद्धिविनिश्चय ) हैं। कुछ अंशों में आचार्य विद्यानन्द के ग्रन्थ प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 334