________________ समझा गया और धीरे-धीरे इन 10 पूर्वो का ज्ञान भी लुप्त हो गया। दिगम्बर परम्परानुसार गुणधराचार्य (ई. पू. प्रथम शताब्दी) को पञ्चम पूर्वगत पेज्जदोसपाहुड तथा महाकामपयडिपाहुड का ज्ञान प्राप्त था जिसके आधार पर उन्होंने पेज्जदोसपाहुड (कसायपाहुड) ग्रन्थ की रचना 180 गाथाओं में की। इन्हें दिगम्बर परम्परा में लिखित श्रुत ग्रन्थ का प्रथम श्रुतकार माना जाता है। इन्हीं के कुछ पश्चादवर्ती धरसेनाचार्य (ई. सन् 73 के आसपास) को द्वितीय पूर्वगत (अग्रायणी पूर्व) कम्मपयडिपाहुड अधिकार का ज्ञान प्राप्त था जिसे उन्होंने श्रुत की रक्षार्थ आचार्य पुष्पदन्त (ई. सन् 50-80) और भूतबलि (ई. सन् 87 के आस-पास) को दिया। आचार्य पुष्पदन्त (प्रारम्भिक 177 सूत्र) और भूतबलि (बाद के 6000 सूत्र) ने छक्खण्डागम (षटखण्डागम) या सत्कर्मप्राभूत ग्रन्थ की रचना की। जिस दिन यह ग्रन्थ पूरा हुआ उस दिन (ज्येष्ठा शुक्ला पञ्चमी) को श्रुतपञ्चमी के रूप में मान्यता मिली। श्रवण-परम्परा से गणधरप्रणीत 'श्रुत' की परम्परा वी. नि. सं. 62 वर्ष बाद तक गौतम (इन्द्रभूति), सुधर्मा और जम्बू स्वामी तक अखण्ड रूप में चली। तीनों केवलज्ञानी थे और इन्हें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्परायें अपना धर्मगुरु स्वीकार करती हैं। अन्तर इतना है कि दिगम्बर परम्परा गौतम को और श्वेताम्बर परम्परा जम्बू स्वामी को विशेष महत्त्व देती है। जम्बू स्वामी के बाद दिगम्बर और श्वेताम्बर गुर्वावलि में अन्तर पड़ गया परन्तु उनमें पाँचवें श्रुतकेवली भद्रबाहु प्रथम (वी.नि.सं. 100 या 162) को दोनों अपना गुरु मानते हैं। जैसे - (क) दिगम्बर गुर्वावलि (पट्टावली के अनुसार ) - जम्बू, विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु / (ख) श्वेताम्बर गुर्वावलि-जम्बू, प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र, सम्भूतिविजय और भद्रबाहु (चतुर्दशपूर्वी)। यहाँ यशोभद्र के शिष्य थे सम्भूतिविजय और भद्रबाहु। सम्भूति विजय के शिष्य थे स्थूलभद्र जिनसे आगे की श्वेताम्बर गुर्वावलि चली और भद्रबाहु की परम्परा में दिगम्बर गुर्वावलि चली। दिगम्बरों के अनुसार भद्रबाहु के बाद 11 आचार्य क्रमिक ह्रास होते हुए 11 अङ्ग और 10 पूर्वो के ज्ञाता हुए। इसके बाद पाँच आचार्य 11 अङ्गधारी हुए। तदनन्तर कुछ आचार्य 10, 6 और 8 अङ्गों के धारी हुए। इसी क्रम में भद्रबाहु द्वितीय (बी. नि. सं. 462) और उनके शिष्य लोहाचार्य हुए। इसके बाद अङ्गों या पूर्वी के अंश मात्र के ज्ञाता हुए। लोहाचार्य के बाद सम्भवत: गुरु-परम्परा निम्न प्रकार रही होगी - लोहाचार्य अर्हद्बलि (गुप्तिगुप्त)(वी.नि.सं.565-593) गुणधर (ई.पू. प्रथम शताब्दी) आर्यमद्धं (ई. सन् प्रथम शताब्दी) धरसेन (ई. सन् 73) माघनदि नागहस्ति (ई. सन् प्रथम शताब्दी) पुष्पदन्त (ई.सन् 50-80) जिनचन्द्र यतिवृषभ (ई. सन् 176 के आसपास) भूतबली (ई. सन् 87) कुन्दकुन्द (ई.सन् प्रथम शताब्दी) उमास्वामी (ई. सन् 1ली 2री शताब्दी) भद्रबाहु प्रथम (वी. नि. सं. 162 वर्ष) के समय अवन्ति देश में बारह वर्ष का अकाल पड़ा जिसके कारण कुछ आचार्यों में शिथिलाचार आ गया। फलस्वरूप आचार्य स्थूलभद्र (भद्रबाहु प्रथम के शिष्य) के संरक्षण में एक स्वतन्त्र श्वेताम्बर सङ्घ की स्थापना हो गई। भद्रबाहु की सङ्घ व्यवस्था भी अहन्दवलि (गुप्तिगुप्त) (वी. नि. 565563) के काल में समाप्त हो गई और दिगम्बर मूल, नन्दि, वृषभ आदि सङ्घों में विभक्त हो गए। ऐतिहासिक उल्लेखानुसार आचार्य अर्हद्वलि ने पाँच वर्षीय युग प्रतिक्रमण के समय (वी. नि, 575) सङ्गठन बनाने के लिए दक्षिणदेशस्थ 332