________________ महिमानगर (महाराष्ट्र प्रदेश का सतारा जिला) में एक वृहद् साधु-सम्मेलन बुलाया जिसमें 100 योजन तक के साधु एकत्रित हुए। इसमें मतैक्य न होने से मूल सङ्घ बिखर गया। इसी समय पञ्चम पूर्व के ज्ञाता आचार्य गुणधर (ई. पू. प्रथम शताब्दी) ने कसायपाहुड की और ई. सन् प्रथम शताब्दी में द्वितीय पूर्व के ज्ञाता आचार्य धरसेन के शिष्य आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि ने षट्खण्डागम ग्रन्थ की रचना करके श्रुत को लिपिबद्ध किया। इसके बाद कसायपाहुड पर यतिवृषभाचार्य ने चूर्णिसूत्र तथा तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ की रचना की। इसी क्रम में युगसंस्थापक आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय आदि ग्रन्थ रचे। उमास्वामी का तत्त्वार्थ सूत्र और वट्केर आचार्य का मूलाचार भी इसी समय लिखा गया। इम तरह उपलब्ध दिगम्बर आगम ई. सन् प्रथम शताब्दी के आसपास लिपिबद्ध कर लिए गए। अनन्तर इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर अन्य रचनाएँ लिखी गई। इस तरह दिगम्बरों ने सभी 12 अङ्ग, 14 पूर्व और 14 अङ्गवाह्य का लोप स्वीकार कर लिया। श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार आगमों के लिपिबद्ध होने के पूर्व चार रचनाएँ हुई। भगवान महावीर के निर्वाण (ई. पूर्व 527 वर्ष) के लगभग 160 वर्ष बाद (ई. पू. 367) चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में मगध में वह दुर्भिक्ष पड़ा जिसमें बहुत ने साधु भद्रबाहु के नेतृत्व में समुद्रतट की ओर प्रस्थान कर गए तथा शेष स्थूलभद्र (स्वर्गगमन वी. नि. सं. 216 वर्ष बाद) के नेतृत्व में मगध ही में रहे। अकाल के दूर होने पर स्थूलभद्र के नेतृत्व में पाटलिपुत्र में जैन साधुओं का एक सम्मेलन बुलाया गया जिसमें मौखिक परम्परा में चले आ रहे श्रुत को व्यवस्थित करने के लिए 11 अङ्ग-ग्रन्थों का सङ्कलन किया गया। यह प्रथम वाचना थी। बारहवाँ दृष्टिबाद भद्रबाहु को छोड़कर किसी को ज्ञात नहीं था। चतुर्दश पूर्वो के ज्ञाता भद्रबाहु उस समय नेपाल में थे। अतएव पूर्वो के ज्ञानार्थ स्थूलभद्र कुछ साधुओं के साथ आचार्य भद्रबाहु के पास नेपाल गए। वहाँ से स्थूलभद्र को छोड़ शेष सभी वापिस आ गए। स्थूलभद्र भी 10 पूर्वो तक निर्बाध ज्ञान प्राप्त करके दोषवशात् शेष 4 पूर्वो के अध्यापन में भद्रबाहु द्वारा मना कर दिए गए। फलतः यहाँ से पूर्वो के शनैः-शनैः लुप्त होने की शुरुआत हो गई। इस वाचना में दृष्टिवाद का सङ्कलन नहीं हो सका। महावीर निर्वाण के 827 या 840 वर्ष बाद (ई. सन् 300-313) पुनः आए 12 वर्ष के अकाल के बाद आर्य स्कन्दिल के नेतृत्व में आगमों को सुव्यवस्थित रूप देने के लिए मथुरा में दूसरा सम्मेलन हुआ। इसमें जिसे जो याद था उसे कालिकश्रुत के रूप में सङ्कलित कर लिया गया। इसे माथुरी वाचना कहते हैं। नागार्जुन सूरि के नेतृत्व में वलभी (सौराष्ट्र) में एक दूसरा सम्मेलन हुआ। यद्यपि यह सम्मेलन आर्य स्कन्दिल के काल में ही हुआ परन्तु ये दोनों नेता आपस में मिल नहीं सके जिससे आगमों का पाठभेद बना रह गया। इसे प्रथम वलभी वाचना कहते हैं। महावीर निर्वाण के लगभग 980 या 993 वर्ष वाद (ई. सन् 453-466) बलभी में ही देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में चौथा सम्मेलन हुआ। इसमें तृतीय सम्मेलन भी कहते हैं। इस समय 45 आगमों (श्वे.) को लिपिबद्ध किया गया। विविध पाठान्तरों और वाचनाभेदों का समन्वय करके माथुरी वाचना को आधार बनाया गया। जिन पाठों का समन्वय नहीं हो सका उनका 'वायणान्तरे पुण', 'नागार्जुनीयास्तु एवं वदन्ति' इत्यादि रूप में उल्लेख कर दिया गया। दृष्टिवाद न मिलने के कारण उसे व्युच्छिन्न घोषित कर दिया गया। इसे द्वितीय वलभी वाचना व अन्तिम वाचना भी कहते हैं। उपलब्ध आगम इसी वाचना के परिणाम हैं। इतना अवश्य है कि आगमों में कुछ परिर्वतन इस वाचना के द्वारा लिपिबद्ध होने के बाद भी हुए हैं, ऐसा अन्तःपरीक्षण से ज्ञात होता है। इस विवेचन निम्न तथ्य प्रकट होते हैं - (1) जैन परम्परा में भावश्रुत (ज्ञानात्मक) और द्रव्यश्रुत (वचनात्मक) के भेद से श्रुत दो प्रकार का है। भावश्रुत की अपेक्षा से 'श्रुत' अनादि, अपौरुषेय अथवा महावीर प्रणीत है। द्रव्यश्रुत की अपेक्षा से गणधरप्रणीत है। दिगम्बर आगम ई. सन् की प्रथम-द्वितीय शताब्दी में लिपिबद्ध हो गए थे और श्वेताम्बर अगम 1000 वर्षों के अन्तराल के बाद देवर्धिगणि। क्षमाश्रमण की वलभी वाचना में लिपिबद्ध किए गए। (2) मूल भाषा अर्धमागधी (आर्ष प्राकृत) थी। श्वेताम्बर आगम इसी भाषा में हैं परन्तु दिगम्बरों के आगम शौरसेनी (जैन शौरसेनी) प्राकृत में है। भाषागत परिवर्तन होने से उनकी अप्रमाणता नहीं मानी गई है क्योंकि जैन धर्म में शब्द की अपेक्षा भावों का प्राधान्य है, वेदों की तरह शब्द का नहीं। यही कारण है कि वेदों की तरह इनकी सुरक्षा पूर्णरूप से शब्दश: नहीं हो सकी। 333