________________ आदि भी हैं। परीक्षामुख जितना सरल है उतना ही गम्भीर है। यही कारण है कि जैन न्यायशास्त्र में प्रवेश के लिए प्रथमतः इसका अध्ययन किया जाता है। तदुपरान्त इस पर लिखी गई टीकाओं के आधार पर इसके गहन अर्थ का स्पष्टीकरण अवगत किया जाता है। टीकाएँ - इस परीक्षामुख की कई महत्त्वपूर्ण टीकाएँ उपलब्ध है, उनमें सर्वप्रथम आचार्य प्रभाचन्द्र द्वारा लिखित 12 हजार शोक प्रमाण 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' नाम की विशाल टीका है, जिसके अध्ययन से समस्त न्यायशास्त्र का सम्यग्ज्ञान हो जाता है। इसके उपरान्त 12वीं शताब्दी के आचार्य लघु अनन्तवीर्य ने 'प्रमेयरत्नमाला' (जो 'परीक्षामुखपञ्जिका' एवं 'परीक्षामुखलघुवृत्ति' के भी नाम से प्रसिद्ध है) नाम की प्रसन्न और ललित शैली वाली टीका लिखी है, जिस पर कालान्तर में 'अर्थप्रकाशिका' और 'न्यायमणिदीपिका' नामकी दो टीकाएँ लिखी गई। इसके उपरान्त नव्यन्याय के प्रचार को देखकर आचार्य चारुकीर्ति ने जैन न्याय को उसी शैली में ढालने के प्रयत्न स्वरूप प्रमेयरत्नालङ्कार' नाम की टीका लिखी, जो 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' और 'प्रमेयरत्नमाला को एक कड़ी में जोड़ने का उपक्रम करती है। चतुर्थटीका 'प्रमेयकण्ठिका है जो 'परीक्षामुख' के प्रथम सूत्र (स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्) पर पाँच स्तवकों में श्री शान्तिवर्णि द्वारा लिखी गई है। महत्त्व और ग्रन्थ-वैशिष्टय - उत्तरकाल में परीक्षामुख का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि परवर्ती अनेक आचार्यों के ग्रन्थ परीक्षा मुख के उपजीव्य बने। हेमचन्द्राचार्य की 'प्रमाणमीमांसा' और वादिदेवसूरि का 'प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार' ये दो ग्रन्थ तो परीक्षामुख के विशेष आभारी हैं। प्रभाचन्द्र, लघु अनन्तवीर्य, पण्डिताचार्य चारुकीर्ति, शान्तिवर्णी आदि कई विद्वान् उनके प्रमुख टीकाकार ही हैं। न्यायदीपिकाकार आचार्य अभिनवधर्मभूषण ने न्यायदीपिका में परीक्षामुख के सूत्रों को सादर उद्धृत किया है। एक स्थल पर तो परीक्षामुखसूत्रकर्ता के लिए भगवान्' और 'भट्टारक' जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया है।' परीक्षामुख के सभी सूत्र नपे-तुले, सार-युक्त, अर्थ-गर्भ, असंदिग्ध और अल्प शब्दों को लिए हुए हैं। उदाहरणार्थ प्रथम सूत्र को ही लीजिए। इसके सभी पद सहेतुक, तथा अपनी विशेषता के द्योतक हैं। परीक्षामुख में प्रायः सर्वत्र परमत के निराकरण के साथ स्वमत-स्थापना की शैली का प्रयोग किया गया है। उदाहरण के लिए निम्न सूत्रों को देखिए - (क) तत्प्रामाण्यं स्वत: परतश्च। परीक्षामुख 1.13 (ख) एतद्वयमेवानुमानाङ्गं नोदाहरणम् / परीक्षामुख 3.33 (ग) न च ते तदङ्गे। परीक्षामुख 3.36 अन्य कुछ ग्रन्थों के साथ परीक्षामुख की तुलना(क) परीक्षामुख और प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार - प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार और परीक्षामुख के सूत्रों की जब हम तुलना करते हैं तो लगता है कि परीक्षामुख के सूत्र ही वादिदेवसूरि ने कहीं-कहीं कुछ शब्द-परिवर्तन करके ज्योंके-त्यों रख दिए हैं, कहीं शब्दाडम्बर इतना बढ़ा दिया है कि अर्थ भी क्लिष्ट हो गया है, कहीं-कहीं उदाहरणों में अप्रसिद्ध शब्दों का प्रयोग भी किया गया है। जिससे अर्थावबोध में कष्ट होता है, कहीं-कहीं सूत्रों का भाव ही तिरोभूत हो गया है। कहीं सूत्र इतने लम्बे दिखाई पड़ते हैं, जैसे कोई भाष्य लिखा जा रहा हो। इसके विपरीत परीक्षामुख के सूत्र लघु, सरल और अर्थगरिमा से समन्वित हैं। प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार के प्रथम छह परिच्छेद तो परीक्षामुख के आधार पर बनाये गये हैं, परन्तु अन्तिम दो परिच्छेदों में नयादि का अतिरिक्त वर्णन किया गया है, जिसकी 'परीक्षामुख' में केवल सूचना दी गई है। प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार में सूत्रात्मकता की अपेक्षा वृत्तिरूपता अधिक है। सम्भवतः लेखक का अभिप्राय विषय-स्पष्टीकरण एवं पाण्डित्य-प्रदर्शन रहा हो / (ख) परीक्षामुख और प्रमाणमीमांसा-इन दोनों ग्रन्थों की भी तुलना करने पर ज्ञात होता है कि प्रमाणमीमांसा में भी परीक्षामुख का पर्याप्त अनुकरण किया गया है। अनुकरण करने पर भी प्रमाणमीमांसा के सूत्रों में वह लघुरूपता नहीं आ पाई, जो परीक्षामुख के सूत्रों में है। इतना अवश्य है कि उसके सूत्रों में प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार के सूत्रों की तरह दीर्घरूपता नहीं है। 335