Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 358
________________ व्यतीत किया। ये जन्म से ब्राह्मण और अद्वितीय पाण्डित्य के कारण तत्कालीन राजा जितारि के राजपुरोहित भी थे। आप जाति से यद्यपि ब्राह्मण थे तथापि बाद में जैन हो गये थे। 'प्रभावकचरित्र' में एतद्विषयक एक उल्लेख मिलता है, तदनुसार आपको अपने पाण्डित्य पर इतना गर्व था कि इनका कहना था कि सारे भूखण्ड में मेरी तो क्या मेरे शिष्य की भी कोई बराबरी नहीं कर सकता'। यहाँ तक कि ये जम्बू वृक्ष की एक शाखा अपने पास में रखते थे तथा पेट पर एक स्वर्ण पट्ट भी बाँधे रहते थे जिसका मतलब था कि जम्बूद्वीप में मुझ जैसा कोई विद्वान् नहीं एवं पेट में इतना ज्ञान है कि उसमें समा न सकने के कारण कहीं फट न जावे। इनकी एक प्रतिज्ञा भी थी कि जिसका वचन नहीं समझूगा उसका शिष्य हो जाऊँगा। एक बार राजा का मदोन्मत्त हाथी आत्पातस्तम्भ को लेकर नगर में दौड़ रहा था। हरिभद्र उससे वचने का प्रयत्न करते हुए समीपस्थ एक जैन उपाश्रय में घुस गये। वहाँ जिन प्रतिमा को देखकर उपहास किया मगर एक दिन किसी जैन उपाश्रय में याकिनी महत्तरा साध्वी को एक गाथा पढ़ते हुए सुना / बहुत प्रयत्न करने पर भी जब उसका अर्थ उनकी समझ में नहीं आया तो उन्होंने याकिनी महत्तरा से उसका अर्थ पूछा। तब साध्वी ने नियमानुसार श्वेताम्बर गच्छपति आचार्य जिनदत्त के पास भेजा। आचार्य जिनदत्त से उक्त गाथा का अर्थ समझकर प्रतिज्ञानुसार उनके शिष्य बन गये। हरिभद्र ने याकिनी महत्तरा को अपनी धर्म माता बना लिया। इनकी विद्वत्ता और सदाचारपरायणता को देखकर आचार्य ने इन्हें पट्टधर आचार्य बना दिया। तदनन्तर हरिभद्र भ्रमण करते हुए जैनधर्म का प्रसार करने लगे। धर्मसंग्रहणी हरिभद्रकृत प्रस्तुत ग्रन्थ में 1396 प्राकृत गाथाएँ हैं जिनमें नाना प्रकार की युक्तियों, कल्पनाओं एवं प्रमाणों के द्वारा धर्म का निर्वचन करते हुए आत्मा के स्वरूप का ही विशेष रूप से प्रतिपादन किया गया है। इस पर प्रसिद्ध वृत्तिकार आचार्य मलयगिरिसूरिकृत संस्कृत-टीका भी उपलब्ध है जो गाथाओं के अर्थ बोध में बहुत सहायक है। टीकाकार ने धर्मसंग्रहणी को दो भागों में विभक्त किया है-पूर्वार्ध और उत्तरार्ध / पूर्वार्ध में धर्म-निर्वचन के साथ आत्मा की सत्ता, उसकी अनादि निधनता, अमूर्तता, परिणामिता और ज्ञस्वभावता की सिद्धि की है। उत्तरार्ध में आत्मा के ही कर्तृत्व, भोक्तृत्व, और सर्वज्ञत्व की सिद्धि करते हुए भावधर्म के फलादि का निर्वचन किया है। ग्रन्थ में यथाप्रसङ्ग बहुत-सी दार्शनिक बातों का जैसाकि अन्य दर्शन-ग्रन्थों में प्रायः पाया जाता है, विचार किया गया है जिसका हम आगे चलकर विस्तार, से कथन करेंगे। संक्षेप में ग्रन्थकार ने 'नमिऊण वीयराग.' इस गाथा से प्रारम्भ करके 35 गाथा पर्यन्त मङ्गलपूर्वक ग्रन्थ के अभिधेय प्रयोजन आदि का वर्णन किया है। 'जीवो उ नत्थि केई.' इस 36 वीं गाथा से लेकर 158 वीं गाथा पर्यन्त भौतिकवादी चार्वाकमत की परीक्षा करके जीव के अस्तित्त्व को सिद्ध किया है। 'जम्हाण कित्ति मो सो' इस 159 वीं गाथा से लेकर 191 वीं गाथा पर्यन्त जीव के अनादिनिधन को, ‘कम्म विमुक्कसरूवो' इस गाथा युगल (192-193) के द्वारा आत्मा के अमूर्तत्व को, 'परिणामी खलु जीवो.' इस 194 वीं गाथा से 475 वीं गाथा पर्यन्त जीव के परिणामित्व को, 'जाता संवित्तीउ' इस 476 वीं गाथा से 545 पर्यन्त आत्मा के ज्ञायकत्व को, 'कत्त ति दारमहुणा' इस 546 वीं गाथा से 580 गाथा पर्यन्त आत्मा के कर्तृत्व को, 'भोत्ता सकडफलस्स य' इस 581 वीं गाथा से 605 गाथा पर्यन्त आत्मा के भोक्तृत्व को, 'नाणादि परिणति' इस 606 वीं गाथा से 748 गाथा पर्यन्त जीव और कर्म के संयोग-सम्बन्ध को, 'सम्मत्त नाण चरणा' इस 749 वीं गाथा से 1137 गाथा पर्यन्त भावधर्म को, 'चोएति कहं रागादि' इस 1138 वीं गाथा से 1375 गाथा पर्यन्त वीतराग सर्वज्ञसिद्धि को, 'काऊण इमं धम्म' इस 1376 वीं गाथा से 1396 गाथा पर्यन्त पूर्व प्रतिपादित भावधर्म के फल को प्रतिपादित किया गया है। उपर्युक्त प्रमुख विषयों के अलावा यथा प्रसङ्ग जो अवान्तर अन्य विषय प्रतिपादित हैं, उन सब का विवरण निम्न प्रकार है धर्मसंग्रहणी में ग्रन्थकार ने सर्वप्रथम (1-3) वीतराग, सर्वज्ञ, देवपूज्य, यथार्थवक्ता, और अचिन्त्यशक्तिसम्पन्न भगवान् महावीर को नमस्कार किया है तथा परोपकार करनेवाली जिनवाणी को गुरूपदेश से जानकर संक्षिप्त धर्म संग्रहणी के प्रतिपादन करने की प्रतिज्ञा की है। इसके बाद परोपकारयुक्त पुरुषार्थ को धर्म बतलाते हुए उपकार के दो भेद किए हैं-द्रव्योपकार और भावोपकार। अन्नपानादि दानरूप द्रव्योपकार है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में जिससे स्थिति हो वह भावोपकार है / इस प्रकार द्रव्योपकार और भावोपकार का स्वरूप बतलाकर भावोपकार की श्रेष्ठता बतलाते हुए दो श्रेष्ठियों के दृष्टान्त दिए हैं। इसके बाद पुनः जिनवचन के अतिशय का प्रतिपादन करते हुए प्रकृत ग्रन्थ 338

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