Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 351
________________ डॉ. राधाकृष्णन् को जैन सिद्धान्त भी यथार्थत: स्वीकार्य है यदि अद्वैतत्त्व का समावेश हो। ऐसा मानने पर जैनदर्शन भी अन्य दर्शनों की तरह एकान्तवादी हो जायेगा जो उसे कथमपि स्वीकार्य नहीं है। हर पदार्थ की स्वतन्त्र सत्ता है। एक पदार्थ कभी अपना स्वरूप छोड़कर अन्यरूप नहीं हो सकता। ऐसा मानने पर सब कुछ अव्यवस्थित हो जाएगा। सब द्रव्यों की स्वतन्त्र इकाई मानना ही परम सत्ता है। इसमें ईश्वरकृत् न तो हस्तक्षेप सम्भव है और न यह जगत् आभासमात्र (स्वप्नवत् मायारूप) है। सन्दर्भसूची - 1. उद्धृत समकालीन भारतीय दर्शन (संपा. श्रीमती लक्ष्मी सक्सेना) पृ.173. 2. ईस्टर्न रिलीजन एण्ड वेस्टर्न थाट, पृ. 77, 3. कन्टेम्परेरी इंडियन फिलासफी, पृ. 498. 4. वही। 5. भारतीय दर्शन, प्रथम भाग, डॉ. राधाकृष्णन् (हिन्दी संस्करण), पृ. 275. 6. वही, पृ. 268. 7. वही, पृ. 249. 8. वही, पृ. 244. 20. वही, पृ. 252. 9. वही, पृ. 247. 21. हिन्दू व्यू. आ. ला., पृ. 121 तथा इंडियन फिलासफी भाग 2, पृ. 611, 620, 10. वही, पृ. 247-248. 22. भारतीयदर्शन,भाग 1 (हिन्दी सं.) पृ. 244 11. वही, पृ. 270. 23. सद् द्रव्यलक्षणम् / उत्पाद्व्यय-धौव्ययुक्तं सत्। तत्त्वार्थसूत्र, 5.29,31. 12. वही, पृ. 275. 24. सकलादेशः प्रमाणाधीनः / विकलादेशो नयाधीनः / तद्भावाव्यये, नित्यम्।, तत्त्वार्थवार्तिक 13. वही, पृ. 274 14.42.13. 14. वही, पृ. 274. 25. समाधिशतक, 31. 15. वही पृ. 274-275. 26. प्रवचनसार, 1.23. 16. वही पृ. 273. 27. वेदान्तदर्शन और जैनदर्शन, श्रमण, जून 1989. 17. वही, पृ. 273-274, 28, समयसार, गाथा 144. 18. वही, पृ. 275. 19, वही, पृ. 232. जैन आगम ग्रन्थों का लिपिकरण जैन-परम्परा में भगवान महावीर (ई. पू. 523 वर्ष) की अनक्षरात्मक वाणी (दिव्यध्वनि-रूप उपदेश) को अर्थ रूप से जानकर उनके प्रमुख शिष्य गौतम गणधर ने जो शब्दात्मक वर्ण बनाए उन्हें श्रुत कहा जाता है। इन्हें अङ्ग, अङ्गप्रविष्ट, गणिपिटक, वेद, अगम, द्वादशाङ्ग आदि नामों में भी जाना जाता है। इस तरह से अन्य अर्थरूप में भगवान महावीर से पूर्व जैन श्रमणपरम्परा में कुछ ऐसी रचनायें मानी गई हैं जिन्हें 'पूर्व' कहा जाता है। श्रुत के बारहवें अङ्ग दृष्टिवाद में ऐसे 14 पूर्वो का उल्लेख मिलता है जिनमें महावीर के पूर्व की अनेक विचारधाराओं का सङ्कलन था। इन पूर्वो में न केवल तत्कालीन धार्मिक, दार्शनिक एवं नैतिक विचारों का सङ्कलन था अपितु इनके भीतर नाना कलाओं, ज्योतिष, फलित ज्योतिष, आयुर्वेद, शकुनशास्त्र, मन्त्र, तन्त्र आदि विषयों का भी समावेश था। वस्तुत: ये प्राचीन काल के ज्ञानकोष थे परन्तु दुर्भाग्यवश यह पूर्व साहित्य सुरक्षित न रह सका। परवर्ती साहित्य में इन पूर्वो का तथा इनके विषयों का यत्र-तत्र उल्लेख मिलता है। इन 14 पूर्वो के ज्ञाता अन्तिम (पाँचवें) श्रुत केवली भद्रबाहु थे। क्रमश: इन पूर्वो का ज्ञान लुप्त होता गया। षट्खण्डागम के वेदना दण्ड में आगत 'नमो दसपुब्वियाणं' एवं 'नमो चउद्दसपुब्वियाणं' सूत्रों की व्याख्या करते हुए वीरसेनाचार्य ने बतलाया है कि प्रारम्भ के 10 पूर्वो का ज्ञान हो जाने पर कुछ मुनियों को नाना महाविद्याओं की प्राप्ति हो जाने से उन्हें सांसारिक लोभ व मोह उत्पन्न हो गया था। जो इस व्यामोह में नहीं पड़ता था वह 14 पूर्वो का ज्ञाता होकर पूर्ण श्रुतज्ञानी हो जाता था। अन्तिम 4 पूर्वो में विविध कलाओं, मन्त्र, तन्त्र, इन्द्रजाल आदि का प्ररूपण था जिनका प्रयोग संयमी जैन मुनि को निषिद्ध था। अतः प्रथमतः इन 4 पूर्वो का लोप हुआ। शेष 10 पूर्वो की बातें अन्य 11 अङ्ग ग्रन्थों में समाहित थीं, फलस्वरूप इन पूर्वो के पठन-पाठन में समयशक्ति को लगाना आवश्यक नहीं 331

Loading...

Page Navigation
1 ... 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490