________________ सकेंगे। संसार को हम उसी अवस्था में यथार्थ समझ सकते हैं जबकि हम विशुद्ध आत्मा के उच्चतम पक्ष की ओर से एकदम आँख बन्द कर लें। (7) जैनी 'जिन' महावीर (विजेता) के अनुयायी हैं। जैनदर्शन का स्वरूप मुख्यत: नैतिक है। अतः अध्यात्मविद्या के विषय में जैनमत उन सब सिद्धान्तों के विरोध में है जो नैतिक उत्तरदायित्व पर बल नहीं देते। मनुष्य की मुक्ति में नैतिक हित ही निर्णायक दृष्टिकोण है। डॉ. राधाकृष्णन् का नीतिदर्शन वेदान्त के नीतिदर्शन से भिन्न नहीं है। वे कहते हैं व्यक्ति तथा ब्रह्म में तात्त्विक अभेद के स्तर पर नैतिकता अपेक्षित ही नहीं है। कर्तव्याकर्तव्य के नियम तभी तक अपेक्षित हैं। जब तक हम आत्मोत्कर्ष की ओर अग्रसर होकर अपने भीतर के श्रेष्ठ ब्रह्म रूप को जान नहीं लेते। आत्मस्थ पुरुष परम्परागत नीति के नियमों में नहीं बन्धता (8) जैनियों की सम्मति में न्याय-वैशेषिक, सांख्य, अद्वैत वेदान्त एवं बौद्ध दर्शन ये क्रमश: प्रथम चार नयों को स्वीकार करते हैं और भ्रम से उन्हें सम्पूर्ण सत्य समझते हैं। सभी नय दृष्टिकोण सापेक्ष हैं। हमारे पास निश्चय नय भी है जो सत्य और पूर्ण दृष्टिकोण है। यह दो प्रकार का है-शुद्ध निश्चय और अशुद्ध निश्चय। शुद्ध निश्चय प्रतिबन्धरहित यथार्थसत्ता का प्रतिपादन करता है जबकि अशुद्ध निश्चय प्रतिबन्धयुक्त सत्ता के विषय पर विचार करता है। डॉ. राधाकृष्णन् द्वारा जैनदर्शन के सम्बन्ध में प्रमुख रूप से प्रस्तुत उपर्युक्त तथ्य इसी ओर संकेत करते हैं कि जैनदर्शन में यदि एक अद्वैत परमसत्ता को मानकर व्याख्या की गई होती तो उनके अनुकूल होती। वस्तुतः जैनदर्शन की मान्यता है कि व्यक्तियों का ज्ञान सापेक्ष होता है क्योंकि वे कर्मबद्ध हैं। अतीन्द्रिय परमज्ञान मुक्तात्माओं का माना गया है जो निरपेक्ष और प्रमाण कोटि का है। सांसारिक परिवर्तन जो दृष्टिगोचर होता है वह भी सत्य है क्योंकि वह वस्तु का स्वभाव है। ऐसा होने पर भी वस्तु अपने स्वरूप से विकृत नहीं होती वस्तुओं का ज्ञान नयों और प्रमाणों से होता है। नयों से होने वाला ज्ञान आंशिक है जबकि प्रमाणों (विशेषकर केवलज्ञानप्रमाण) से होने वाला ज्ञान पूर्ण है। जीवात्मा और परमात्मा में अभेद स्वीकार करते हुए समाधि शतक में कहा गया है - यः परमात्मा से एवाऽहं योऽहं सः परमस्ततः।। अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः॥25 अर्थ-जो परमात्मा (शुद्धात्मा) है वही मैं (जीवात्मा) हूँ और जो मैं (जीवात्मा) हूँ वही परमात्मा है। मेरे द्वारा मेरी ही उपासना की जाती है, इससे भिन्न अन्य कोई नहीं है। अत: केवलज्ञानी के लिए कुछ भी कर्तव्याकर्तव्य के विवेक का प्रश्न नहीं है। यह कथन जीवात्मा के गुणों की अपेक्षा से है। अपेक्षा भेद से शरीर-परिमाणी आत्मा को जैनदर्शन में व्यापक भी कहा गया है आदा णाणपमाणं णाणं तु णेयप्पमाणमुद्दिटुं / / णेयं लोयालोयं णाणं तु सव्वगयं / / 26 अर्थ-आत्मा ज्ञानरूप होने से ज्ञानप्रमाण है। ज्ञान समस्त ज्ञेयों को जानने के कारण ज्ञेयप्रमाण है। ज्ञेय समस्त लोकालोक है। अत: ज्ञान सर्वगत है। ज्ञान के सर्वगत होने से आत्मा भी सर्वगत है। यह कथन केवलज्ञान गुण सापेक्ष है। इस तरह जैनदर्शन अपेक्षाभेद से अद्वैतवाद को स्वीकार करते हुए भी भेद को मानता है। जैन दर्शन मूलतः छ: द्रव्यों की सत्ता को स्वीकार करता है। इन्हें ही चेतन और अचेतन की दृष्टि से दो भागों में भी समाहित करता है। चेतन और अचेतन इन दो की सत्ता को डॉ. राधाकृष्णन् भी स्वीकार करते हैं परन्तु वे अचेतन को चेतन का ही अंश या प्रतिभास मानना चाहते हैं, जबकि जैनदर्शन ऐसा स्वीकार नहीं करता है। अचेतन कभी भी चेतन का अंश नहीं हो सकता है। यही मौलिक अन्तर है। शाङ्करवेदान्त और जैनदर्शन की तुलना करते हुए मैंने अपने उस निबन्ध में इन विषयों पर प्रकाश डाला है। आचार्य कुन्द-कुन्द ने अपने समयसार में स्पष्ट कहा है-सव्वणयपक्खरहिदा भणिदो जो सो समयसारो28 जो सभी नयपक्षों से रहित है वही समयसार (आत्मा) है। इस तरह जैसे डॉ. राधाकृष्णन् ने पूर्व और पश्चिम की दार्शनिक विचारधाराओं का समन्वय किया है उसी प्रकार जैनदर्शन में भी अपेक्षाभेद से सभी दार्शनिक विचारधाराओं का समन्वय किया गया है। समन्वय करते हुए डॉ. राधाकृष्णन् अद्वैत तत्त्व तक पहुंच गए हैं जबकि जैनदर्शन अद्वैत तक पहुँचकर भी अनेकता में विश्वास रखता है। डॉ. राधाकृष्णन् स्वीकार करते हैं कि जैनमत में अनेकान्तवादी यथार्थता का प्रतिपादन किया गया है। यह भी कहा है कि जैन सिद्धान्त को हठात् एक पूर्ण सर्वव्यापक सत्ता की ओर आना ही होगा जो भिन्न भी है और संयुक्त भी है। इससे स्पष्ट है कि 330