Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 349
________________ मानवतावादी प्रस्तुत करता है धर्म उसी को पूर्णता प्रदान करता है। आपकी दृष्टि यद्यपि अद्वैत वेदान्तमूलक है परन्तु आपके वेदान्त में और शङ्कराचार्य के वेदान्त में स्पष्ट अन्तर है। डॉ. राधाकृष्णन् ने सर्जनात्मक व्यक्तित्व के आधार पर सविशेष और निर्विशेष की जो व्याख्या की है उससे विश्व के मिथ्यात्व का बोध नहीं होता। जैसे किसी कलाकार की कृतियाँ सर्जनात्मक क्षमता से सम्बद्ध होने के कारण यथार्थ हैं, मिथ्या नहीं, उसी प्रकार ईश्वर की विश्वात्मक सृष्टि यथार्थ है, शङ्कराचार्य की तरह आभासमात्र या मिथ्या नहीं है। इस विश्वरचना के सन्दर्भ में निर्विशेष परम सत् सविशेष हो जाता है। अतः निर्विशेष से सम्बद्ध होने के कारण न तो यह विश्व मिथ्या है और न ईश्वर का आभासमात्र। डॉ. राधाकृष्णन् की इस दृष्टि से जब हम उनके विचारों की तुलना जैनदर्शन के साथ करते हैं तो हम देखते हैं कि आपने अपने भारतीय दर्शन में सर्वत्र जैनदर्शन की समीक्षा अद्वैत दृष्टि से ही की है। जैसे(1) जैनदर्शन के विवेचनोपरान्त आपने उपसंहाररूप में कहा है-एक बात बिल्कुल स्पष्ट है, आधे रास्ते में ही ठहर जाने के कारण जैनमत एक अनेकान्तवादी यथार्थता का प्रतिपादन कर सका है। (2) अत्यन्त सरल जैनधर्म में रियायत अथवा क्षमा को कोई स्थान प्राप्त नहीं था। इसीलिए जनसाधारण के मन को आकृष्ट न कर सका और इसीलिए अस्थायी समझौते ही किए गए। (3) केवलज्ञान अथवा मुक्तात्माओं के ज्ञान के ऊपर ध्यान देकर विचार करने से हमें प्रतीत होगा कि जैन सिद्धान्त उपलक्षण या सङ्केत द्वारा अन्तर्दृष्टि की विधि एवं निरपेक्ष परमसत्ता के सिद्धान्त को स्वीकार कर लेता है। (4) प्रत्येक दृष्टिकोण जो हमें ज्ञान प्राप्त कराता है सदा ही आंशिक होता है और उस तक हम पृथक्करण की प्रक्रियाओं द्वारा पहुँचते हैं। जैन तर्कशास्त्र हमें अद्वैतपरक आदर्शवाद की ओर ले जाता है और जिस हद तक जैन इससे बचने का प्रयास करते हैं उस हद तक वे अपने निजी तर्क के सच्चे अनुयायी नहीं हैं। सापेक्षता का सिद्धान्त तार्किक दृष्टिकोण से, बिना एक निरपेक्ष की कल्पना के नहीं ठहर सकता है।......यदि जैनदर्शन अनेकत्ववाद तक ही रहे जो अधिकतर केवल सापेक्ष एवं आंशिक सत्य है और वह यह जिज्ञासा न करे कि उच्चतर सत्य भी कोई है जो एक ऐसी एकमात्र सत्ता की ओर निर्देश करता है जिसने इस विश्व के पदार्थों में व्यक्तिगतरूप धारण कर रखा है, जो एक दूसरे से मुख्यतः अनिवार्यरूप में है और अन्तर्यामीरूप में सम्बद्ध है तो वह अपने तर्क को स्वयं दूर करके एक सापेक्ष सत्य को निरपेक्ष सत्य की उन्नत कोटि में पहँचा देता है। केवल इसी प्रकार का अद्वैतपरक सिद्धान्त जैनदर्शन के सापेक्षतावाद के साथ मेल खा सकता है क्योंकि सम्बन्ध जितने भी हैं वे उन बाह्य पदार्थों से, जिनसे वे सम्बन्ध रखते हैं, स्वतन्त्र नहीं हैं।10 (5) जैन मत में जिस अनेक सत्तात्मक विश्व की कल्पना की गई है वह केवल सापेक्ष दृष्टिकोण से ही है, किन्तु परम सत्य नहीं है।" संसार अनात्म के बल से निर्माण हुई एक प्रतीतिमात्र है, सत् नहीं है। अनात्म भी केवल आत्मा का दूसरा अंश है या उसका कुछ प्रतिबिम्ब है। 12 आध्यात्मिक एवं भौतिक प्रवृत्तियों के बीच, जिनके सङ्घर्ष को इस संसार में अनुभव होता है, परस्पर क्या सम्बन्ध है ? यद्यपि ये एक दूसरे के परस्पर विरोधी हैं परन्तु वे उस एकता के विरोधी प्रतीत नहीं होते क्योंकि वह एकता विरोधियों का एक संश्लेषण है। अत: जैन सिद्धान्त को हठात् एक पूर्ण सर्वव्यापक सत्ता की ओर आना ही होगा जो भिन्न भी है और संयुक्त भी है। यथार्थ सत्ता केवल एक ही पूर्ण है-विशुद्ध आत्मा एवं विशुद्ध प्रकृति उस सत्ता के पृथक्करण मात्र हैं। इनका पृथक्करण केवल तर्कशास्त्र के लिए है। ये दोनों यद्यपि एक दूसरे के विरोधी हैं किन्तु एक ही पूर्ण सत्ता के पृथक् न किए जा सकने वाले अवयव हैं। जैन तर्क के अनुसार भी एक समष्टिरूप एकेश्वरवाद या अद्वैतवाद ही निकलेगा।5।। (6) अध्यात्मविद्यासम्बन्धी विवाद का यह एक सर्वसम्मत एवं सामान्य नियम है कि जो प्रारम्भ में नहीं था और अन्त में भी न रहेगा उसकी वर्तमान प्रक्रिया में भी यथार्थ सत्ता स्वीकार नहीं की जा सकती (आदावान्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि न तत्तथा)। अनेकता वास्तविक एवं विद्यमान् तो मानी जा सकती है। किन्तु उसकी यथार्थता को नहीं माना जा सकता। आत्मा की अनेकता तब तक सम्भव नहीं जब तक परमार्थदशा में भी भिन्नता का कोई आधार न हो। मुक्त आत्मा के पृथक् अस्तित्त्व के मार्ग में बाह्य पदार्थ एवं शारीरिक बन्धन सदा ही बाधक रहेंगे। तब मुक्ति किसकी होगी?" यदि हम जैनदर्शन के इस पहलू पर बल दें और यह स्मरण रखें कि केवली व्यक्ति में अन्तर्दृष्टि द्वारा ज्ञान होता है जो विचार से ऊँची श्रेणी का है, तो हम ऐसे एकेश्वरवाद (अद्वैतवाद) में पहुँच जाते हैं जो परमार्थरूप और अपरिमित है, जिसके कारण हम सङ्घर्ष में जुटे संसार को, जहाँ पर सब पदार्थ यथार्थता एवं शून्यता के मध्य में ही घूमते रहते हैं, अयथार्थ समझ 329

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